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________________ और से प्रश्रवण को ग्रहण करते हैं ।" यह भी रोग दूर करती है । प्रु ३. खेलौषधि खेल का अर्थ है श्लेष्म । श्लेष्म ही औषधि है जिसकी वह खेलौषधि है । " ४. जल्लोषधि जल्ल का अर्थ है मैंल । जल्ल ही औषधि है जिसकी वह जल्लोषधि है । इसके अन्तर्गत मुख, कान, नाक, नयन, जीभ आदि का मैल तथा शरीर में उत्पन्न स्वेद आदि का ग्रहण किया गया है । fa औषधि, खेलौषधि और जल्लोषधि लब्धि को प्राप्त करने वाले व्यक्ति के विट्, खेल और जल्ल सुगंधित हो जाते हैं । रोगापनयन की दृष्टि से इनका स्पर्श करने से रोग दूर हो जाते हैं । ये लब्धियां तपस्वियों को ही प्राप्त होती हैं । ' ५. संभिन्नश्रोत लब्धि इसके चार अर्थ है - ( १ ) जो शरीर के सभी भागों से सुनता है वह संभिन्नश्रोता है । ( २ ) जो एक इन्द्रिय के द्वारा अन्य इन्द्रियों के विषयों को जान लेता है वह संभिन्नश्रोता है । ( ३ ) जिसकी इन्द्रियां परस्पर में एकरूप हो गई हैं वह संभिन्नश्रोता है अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षु इन्द्रिय का कार्य करने लग जाती है और चक्षुइन्द्रिय, श्रोत्रेन्द्रिय का । इसी प्रकार अन्य इंद्रियां भी कार्य करने लग जाती है । ( ४ ) जो बारह योजन में विस्तृत चक्रवर्ती के सेना के एक साथ काहल आभेरी, भाणक ढक्का आदि के शब्दों को पृथक्-पृथक् जान लेता है वह संभिन्नश्रोता है ।" बजे हुए शंख, ६-७. ऋजुमति लब्धि और विपुलमति लब्धि साधारण रूप से मनोगत भावों को ग्रहण करने वाली सामर्थ्यरूपमति को ऋजुतिलब्ध कहते हैं । विपुलमति लब्धि मन के भावों को विशेषरूप से ग्रहण करती है । ऋजुमति जिन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों को जानता है विपुलमति उन्हें विशुद्धतर रूप से जानता है । ऋजुमति और विपुलमति दोनों मनःपर्यंव ज्ञान के प्रकार हैं । आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यक चूणि आदि में जो मनःपर्यवज्ञानी रूप लब्धि का उल्लेख है वह विपुलमति रूप मनः पर्यवज्ञान से ही संबंधित है । " ८. सर्वोषधि लब्धि इसके भी चार अर्थ हैं - ( १ ) जिसे आमषौषधि, विट् औषधि, खेलौषधि और जल्लौषधि आदि चारों लब्धियां प्राप्त हो गई हैं उसे सर्वौषधि कहा जाता है । (२) जो संपूर्ण शरीर से या शरीर के विशेष अवयव में खेलौषधि आदि द्वारा औषधि के सामर्थ्य से युक्त है वह सर्वोषधि है । (३) जो सब रोगों का निग्रह करने में समर्थ है वह सर्वोषधि है । ( ४ ) जिसके विट्, मूत्र, केश, नख आदि अवयव रोग को दूर करने में समर्थ है वह सर्वोषधि है ।" खंड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ९२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only १३३ www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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