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________________ रिक्त कोई जीव नहीं है । यहां प्रश्न होता है कि इन गुणों के समूह में रहने का कारण क्या है ? दूसरा ज्ञान तथा सुख को जीव का गुण कैसे स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि ज्ञान तथा सुख परिवर्तनशील हैं और कुछ अवस्थाएं ऐसी भी आती है जिस समय ज्ञान तथा सुख का अभाव होता है । दूसरा मनुष्य आदि को जीव की पर्याय मानी गई है । तब प्रश्न होता है कि आत्मा या जीव मुक्त कैसे हो सकता है ? क्योंकि जीव अपनी पर्यायों से रहित नहीं हो सकता है । और मनुष्य रूप पर्याय आदि को जीव की बद्ध अवस्था मानी है । एक अन्य प्रश्न यह है कि अचेतन चेतन की पर्याय कैसे हो सकता है ? जैन दार्शनिकों के अनुसार जीव अपने अस्तित्व के लिए न तो किसी दूसरे द्रव्य पर आश्रित है और न इस पर आश्रित कोई दूसरा द्रव्य है । सब द्रव्यों में जीव ही श्रेष्ठ है क्योंकि केवल जीव को ही हित-अहित, हेय-उपादेय. सुख-दुःख आदि का ज्ञान होता है।८ द्रव्य संग्रह में जीव के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह कर्ता और भोक्ता है ।" निश्चय नय से जीव स्वयं का कर्ता और भोक्ता है तथा व्यवहार नय से अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। यहां प्रश्न होता है कि 'स्वयं" के भोग तथा “पर” के भोग का स्वरूप क्या है ? 'स्वयं" के भोग तथा "पर" के भोग में कोई भेद है या नहीं ? क्या इन दोनों के भोग में कोई भोग उत्कृष्ट है ? यदि है तब वह उसको क्यों भोगता है जो उत्कृष्ट नहीं है ? "स्वयं" को तथा "पर" को जीव एक ही काल में भोगता है या भिन्न-भिन्न काल में । जैन दार्शनिकों ने जीव की दो अवस्थाएं-- मुक्त तथा बद्ध-मानी है । बद्ध जीव अनादिकाल से कर्मों से बद्ध है, जिसके कारण वह जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, किन्तु वह मुक्त हो सकता है । यहां प्रश्न है कि जीव के बद्ध होने का कारण क्या है ? बद्ध अवस्था से पहले जीव मुक्त था या बद्ध ? यदि यह मुक्त था तब वह बद्ध कसे हो गया ? और यदि बद्ध था और बद्ध ही है तब यह कसे कहा जा सकता है कि वह मुक्त हो सकता है और फिर बन्धन में नहीं आ सकता ? एक अन्य प्रश्न यह है कि जीव स्वयं संसार में आकर बद्ध होता है, या इस संसार के विषय जीव जगत् में जाकर जीव को बांध लेते हैं ? . बन्धन का कारण क्या है ? इसके जवाब में आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि योग और कषाय ही बन्धन का कारण है ।" यहां प्रश्न होता है कि कषाय जीव का धर्म है या किसी अन्य का ? यदि कषाय जीव का धर्म है तब तो जीव मुक्त कैसे हो सकता है, क्योंकि जीव अपने धर्मों को कैसे छोड़ सकता है । यदि कषाय किसी अन्य का धर्म है तब जीव अन्य के धर्म से बन्धन में कैसे आ जाता है ? कषाय और जीव का क्या सम्बन्ध है ? इस संबंध में आचार्य कुन्दकुन्द का मत है कि राग, द्वेष, मोह आदि निश्चय नय से पुद्गल के धर्म हैं तथा व्यवहार नय से जीव के हैं। यहां प्रपन है कि जो निश्चय नय से जीव के हैं ही नहीं वे जीव के कैसे हो सकते हैं ? और फिर यदि व्यवहार नय से जीव के हैं तब निश्चय नय से जीव के क्यों नहीं ? दूसरा खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२) १२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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