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पिण्ड से जब घट बनाया जाता है तब घट रूप पर्याय की उत्पत्ति, पिण्ड रूप पर्याय का विनाश और रूप आदि गुणों की स्थिरता रहती है । अतः उत्पत्ति आदि में काल भेद नहीं है। इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि उत्पत्ति ही विनाश है या विनाश ही उत्पत्ति है, अर्थात् उत्पत्ति और विनाश द्रव्य की कोई दो घटनाएं नहीं है, अपितु एक ही घटना को समझाने के लिए दो नाम दिये गये हैं। पूर्व पर्याय की अपेक्षा से विनाश कह दिया जाता है तथा वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से उत्पत्ति कह दिया जाता है । इस प्रकार उत्पत्ति तथा विनाश पर्याय पर आश्रित हैं और स्थिरता गुण पर आश्रित है ।" उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता एक दूसरे के अविनाभावी है ।१२
__ विनाश के बिना उत्पत्ति नहीं हो सकती है और उत्पति के बिना विनाश नहीं नहीं तथा स्थिर द्रव्य के बिना उत्पत्ति और विनाश दोनों सम्भव नहीं है। इस प्रकार च्य नित्यानित्यात्मक या परिणामी नित्य है।
उत्पत्ति, विनाश तथा स्थिरता गुण तथा पर्याय पर आश्रित होने के कारण द्रव्य की तात्त्विक परिभाषा-गुण तथा पर्याय का आश्रय द्रव्य है-को ही स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु यहां प्रश्न होता हैं कि क्या गुण और पर्याय ही द्रव्य है या इन दोनों का आश्रय द्रव्य है ? यदि गुण तथा पर्याय ही द्रव्य है, तब इन से भिन्न द्रव्य कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि गुण तथा पर्याय से भिन्न उनका आश्रय या आधार द्रव्य है तब उसका स्वरूप क्या है ? अर्थात् गुण तथा पर्याय से भिन्न भी कोई द्रव्य की वस्तु सत्ता है ? इस प्रश्न के जवाब में कहा है कि गुण तथा पर्याय से भिन्न कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । और गुणों की वर्तमान कालीन अवस्था ही पर्याय है ।" इसका अर्थ यह है कि गुणों से स्वतन्त्र कोई द्रव्य या पर्याय नाम की वस्तु नहीं है । अतः निष्कर्षतः द्रव्य की परिभाषा की जा सकती है कि द्रव्य "नित्य गुणों" के समूह की अनित्य अवस्था है। द्रव्य एक है या अनेक ?
द्रव्य की एकता और अनेकता के प्रश्न के जबाब में जैन दार्शनिकों का मत है कि द्रव्य सत्ता की अपेक्षा एक है, क्योंकि सत्ता सब द्रव्यों में व्याप्त है और अपने विशिष्ट गुणों के कारण द्रव्य अनेक हैं, क्योंकि सब द्रव्यों के गुण समान नहीं है। इन अनेक द्रव्यों को समझने के लिए छः भागों-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-में विभाजित किया गया है। जीव द्रव्य
चेतन द्रव्य को "जीव" कहते हैं। "चैतन्य जीव का असाधारण गुण है जिसमें बाह्य तथा आभ्यन्तर कारणों से दो रूप-ज्ञान तथा दर्शन में परिणमन होता है । जिस समय चैतन्य "स्व" से भिन्न किसी वस्तु या विषय को जानता है तब "ज्ञान" कहलाता है और जब चैतन्य मात्र चैतन्याकार रहता है तब "दर्शन" कहलाता है। ज्ञान, दर्शन, सुख तथा शक्ति जीव के नित्य धर्म हैं, अर्थात् इन गुणों के समूह के अति
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तुलसी प्रज्ञा
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