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"जैन द्रव्य सिद्धांत"-परिचय और समीक्षा
राजबीरसिंह शेखावत
दर्शन और दार्शनिक का कार्य जगत् को समझना और उसकी व्याख्या करना है । दार्शनिक, जगत् को जिस रूप में समझता है उसी रूप में दूसरों को भी समझाता है । दूसरों को समझाने के लिए वह सिद्धांतों की स्थापना करता है जो किसी दार्शनिक पद्धति या विचार प्रणाली द्वारा सम्पादित होता हैं । जैन दार्शनिकों ने इस विचार-प्रणाली के रूप में "अनेकांत दृष्टि" को अपनाया है।
___ जैन दार्शनिकों के अनुसार वस्तु में अनेक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ रहते हैं, जिन्हें 'अनेकान्त दृष्टि' से ही समझा जा सकता है। यदि एकान्तिक दृष्टि को अपनाया जाये तो वस्तु में रहने वाले प्रतिपक्षी धर्मों को नहीं जाना जा सकता। दूसरे इससे “एकान्तवाद" की स्थापना होती है और एकान्तवादी' जगत् की यथार्थ व्याख्या नहीं कर सकते । अनेकान्तवाद ही वस्तु की यथार्थ व्याख्या कर सकता है, क्योंकि एकान्तवाद में कर्म, कर्मफल, बन्धन, मोक्ष, पाप, पुण्य, इहलोक, परलोक भादि की युक्तिसंगत व्याख्या नहीं हो सकती है ।'
___एकान्तवाद एक ही धर्म की स्थापना कर सकता है, जबकि वस्तु के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह सर्वथा सत् ही है अथवा सर्वथा असत् ही है, नित्य ही है या अनित्य ही है । जो वस्तु सत् है वही असत् भी है, जो नित्य है वह अनित्य भी है, जो एक है वह अनेक भी है।' और इस प्रकार की जो वस्तु या विषय है जिसमें प्रतिपक्षी धर्म रहते हैं या यों कहें की जगत् में जो कुछ भी है वह द्रव्य हैं। द्रव्य क्या है ?
गुण तथा पर्याय का आश्रय या आधार · द्रव्य" है । गुण और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं हो सकता तथा द्रव्य के बिना 'गुण' और 'पर्याय' नहीं हो सकते । गुण और पर्याय का अस्तित्व द्रव्य से अभिन्न है । गुण नित्य धर्म है जो द्रव्य में वर्तमान तथा सहभावी रूप से रहते हैं । ये द्रव्य का स्वभाव भी है तथा स्वयं निर्गुण होते हैं । पर्याय क्रमभावी तथा परिवर्तनशील होते हैं जो आते-जाते रहते हैं । इन्हीं गुण तथा पर्याय की अपेक्षा से द्रव्य नित्य भी है तथा अनित्य भी है।
द्रव्य का एक दूसरा लक्षण भी दिया जाता है जो उपर्युक्त लक्षण से तत्त्वतः भिन्न नहीं है । इसके अनुसार द्रव्य वह है जो “सत्' है और "सत्' वह है जिसमें उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता पाई जावे । यह उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता भिन्नभिन्न काल में नहीं होती, अपितु तीनों एक ही काल में पाई जाती हैं, जैसे मिट्री के खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२)
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