________________
संभावना अर्थ में-- अवि सुब्भि दुब्मि गन्धाइं सहाई अणे गरूवाई।" अवि सूइयं वा सुक्कं वा ।"
अवि झाइ महावीरे ।१२ अह-यह संस्कृत के 'अथ' अव्यय का प्राकृत रूपांतर है। अब, बाद अथवा, और, मंगल, प्रश्न, समुच्चय, प्रतिवचन, यथार्थता, प्रायः वास्तविकता, पूर्वपक्ष, वाव य की शोभा बढ़ाने एवं पादपूर्ति के लिए इसका प्रयोग होता है। पाली में अथ और अथो' दो अव्यय मिलते हैं-अथाति अविच्छेदनत्थे अथो ति किच्चन्तर संयोजनत्थे निपातो।" आचारांग में यह निम्नलिखित अर्थों में विनियुक्त हुआ है :
आनन्तर्य-अह चक्खुभीया" (तदनन्तर उनके दर्शन से भयभीत)। प्रायः-अह लूहदेसिए भते" (प्रायः रुक्ष अन्न मिलते थे)। अतः--अह गाम कंटए" (अतः ग्राम कंट को को)।
अहे-यह दिशावाची अव्यय है । संस्कृत अधस् एवं अधरः लैटिन में Interus, गाथिक Under अंग्रेजी Under पाली अधो का अर्द्धमागधी प्राकृत में अहे और अहो दो रूप मिलते है परन्तु अहे रूप का ही बाहुल्य है । यथा---अहे विगड़े अहीया सए । ७ आचारांग में अनेक स्थलों पर (१.५.६.२, १.६.४.२, १.८.४.१४) प्रयुक्त है । स्थानांग में अहे के स्थान पर अहो- अहो लोगें (स्थानांग ६१) है लेकिन विद्वानों ने इसे अशुद्ध भाना है।
इय-(इति, इइ, इय, ति) संस्कृत एवं पाली 'इति', अवेस्ता ipa, लैटिन ita प्राकृत में चार रूपों-'इति, इइ, इय और ति' में मिलता है। यह अव्यय समाप्ति, परिमाण, अवधि, निश्चय, हेतु, एवं, इस प्रकार, देखो, नियम, के रूप में और के सम्बन्ध में आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है । 'इति' जब स्वतन्त्र रूप से या किसी वाक्य के आरम्भ में आता हो तो भन्तिम 'इ' के स्थान पर 'अ' शेष मिलता है । * महाराष्ट्री में 'इअ' अर्धमागधी एवं जैन महाराष्ट्री में ‘इय' रूप पाया जाता है । आचारांग में अनेक स्थलों पर यह रूप प्रयुक्त मिलता है (१.२.१.१, १.२.३.१ आदि)। उपधान श्रुत में इस प्रकार' के अर्थ में विनियुक्त है-इय संखाय से महावीरे ।" .
इह-यह दिग्वाची अव्यय है। संस्कृत इह, अवेस्ता इद, लैटिन इहि रूप मिलता है जो यहां, इस स्थान पर, इस दशा में, इस लोक में, आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है । पाली और शौरसेनी प्राकृत में ‘इधरूप मिलता है । आचारांग में ‘इह' रूप विनियुक्त है :
इह लोइयाई।" इसि-यह संस्कृत 'ईषत्' अव्यय का प्राकृत रूप है जो 'अल्प', 'थोड़ा' आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है । प्राकृत काव्यों में इसके ईस, ईसि और इसि तीन रूप मिलते हैं । अर्धमागधी एवं जैन महाराष्ट्री में स्वतन्त्र रूप में आता है लेकिन सन्धि होने पर अनुस्वार युक्त हो जाता है। आचारांग में अनेक स्थलों पर इसके उदाहरण प्राप्त खण्ड १८, अंक ३, (जुलाई-सित०, ६२)
११९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org