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है--इसि माईय अपडिन्ते ।" इसके हृस्व और दीर्घ (ईसि, इसि) दोनों रूप मिलते
एगया-यह काल वाची तद्धित प्रत्ययान्त अव्यय संस्कृत एकदा का प्राकृत रूप है। एक शब्द से काल अर्थ में दा प्रत्यय करने से एकदा रूप बनता है जो 'एक समयं' 'एकस्मि, समयस्मि' आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है । आचारांग में अनेक स्थलों पर यह प्रयुक्त हुआ है :-'एगया वासो ..."एगयाबासो ।" इसका एकदा, एक्कसि. एक्कासअं, एककइया (वैकादः सिसि इआ)" आदि रूप मिलते है।
एयामओ-~-यह क्रिया विशेषणात्मक अव्यय है जो सार्वनामिक प्रातिपदिक से व्युत्पन्न है तथा पंचमी विभक्ति के अर्थ में प्रयुक्त होता है । इदम् शब्द से तसिल् प्रत्यय करने पर 'इतः' बनता है और वही अर्धमागधी में एयाओ बन जाता है । यह 'यहां से, अब से इधर से, इस ओर से आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है । पाली में 'इतो' रूप मिलता है-पेत लोकं इतो गता (यहां से प्रेतलोक गयी)। आचारांग में एयामो रूप मिलता है । एयाओ परं पलेहित्ति ।"
एवं संस्कृत का 'एवम्' ही प्राकृत में ‘एवं' है। अतः, इसलिए, इस रीति से, इस प्रकार से, इस तरह आदि अर्थों में यह अव्यय प्रयुक्त होता है। पाली त्रिपिटक में उपमा, उपदेश, सम्प्रहर्षण, निन्दा, वचन सम्प्रतिग्रहण, आकार, निदर्शन तथा अवधारण आदि अर्थों में इसका प्रयोग हुआ है। आचारांग में कई स्थलों पर यह प्रयुक्त है:
भगवया एवं रियंति (१.९.'.२३) एवं पि तत्थ विहरंता (१.९.३.६)
एवमक्खायं (१.१.१.१.) एवं पि-संस्कृत एवमपि (एवम् + अपि) का प्राकृत में एवं पि पाली में एवम्पि रूप हो जाता है । इस प्रकार भी उस प्रकार भी आदि अर्थों में यह प्रयुक्त होता हैएवं पि तत्थ लाढेहि (१.९ ३.८)।
. खु-यह संस्कृत अव्यय खलु के अर्थ में प्रयुक्त होता है। हेमचन्द्र के अनुसार 'हु' और 'खु' निश्चय, वितर्क, संभावना और विस्मय आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है । पाली में खलु और खो मिलता है ।" प्राकृत भाषाओं में इसके विभिन्न रूप मिलते हैं-शौरसेनी में खु और क्खु, हु मागधी में, णहु (न खलु) जैन महाराष्ट्री में हु, तथा अर्द्धमागधी में 'हु' और 'खु' दोनों रूप मिलते हैं । आचारांग में 'खु' अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-एवं खु अणुधम्मियं तस्स ।" आदि।
___-यह रूढ़ अव्यय है जो संस्कृत 'ननु' अर्थ में प्रयुक्त होता है-'ण नन्वर्थे । ननु का प्रयोग निश्चय, आशंका, वितर्क और प्रश्न आदि अर्थों में होता है । इन अर्थों के अतिरिक्त वाक्यालंकार एवं स्वीकारोक्ति के रूप में 'ण' अव्यय प्रयुक्त होता है । अपभ्रश में णं उपमार्थक है। इसका प्रयोग प्रायः नाक्यारम्भ में होता है परन्तु कहीं-कहीं मध्य मे भी पाया जाता है
आरुसिया णं तत्थ हिंसिसु । २
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तुलसी प्रज्ञा
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