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________________ सदृशं त्रिषु लिङ्गषु सर्वाषु च विभक्तिषु । वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम् ॥' अर्थात् जो तीनों लिङ्ग, सभी विभक्तियों एवं वचनों में अविकृत रूप में रहता, हैं वह अव्यय है। सुप्रसिद्ध पालि-वैयाकरण मोग्गलान ने भी अव्यय के इसी स्वरूप की ओर संकेत किया है। उसने अव्यय को 'असंख्य' शब्द से अभिहित कर यह बताया है कि इनके साथ प्रयुक्त सभी विभक्तियों का लोप हो जाता है-"असंख्ये हि सव्वासं"।" इस प्रकार यह अवधारित हुआ कि अव्यय अपने एक रूप में अवस्थित होता है। वचन, विभक्ति एवं लिङ्गादि से उसमें किसी प्रकार की विकृति नहीं होती है। सन्धि होने पर किञ्चित् विकृति स्वीकृत है । अव्ययों का वर्गीकरण यास्क ने अव्ययों (निपातों) को तीन रूपों में वर्गीकृत किया है- १. उपमार्थक -इव, यथा, न, चित्, नु आदि । २. पादपूरणार्थक--उ, खलु, नूनम्, सीम् हि, वा अहो, हं हो। पाली में- अस्सु, खो, पन ह हि आदि। ३. कर्मोपसंग्रहार्थक (अर्थसंग्रहार्थक)-च, वा. समं, सह, आम, णवि, हन्द, जेण-तेण, णइ, चेअ, णवरि, माइं, च, उअ आदि । .. प्राकृत भाषा के अव्ययों को, अध्ययन की सुविधा के लिए तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं :-१. तद्धितान्त-वे अव्यय जो तद्धित प्रत्ययों से निष्पन्न हुए हैं-तत्थ, इह, एगया, सव्वओ आदि २. कृदन्त-जो कृत्प्रत्ययों के योग से निष्पन्न हुए हैं-वोसिज्ज, णच्चा, अभिभूय, आइक्खउ ३. रूढ़-प्रकृति-प्रत्यय आदि विभागों से रहित अव्यय । यथा-च, वा, ण आदि । हेमचन्द्राचार्य ने अपने शब्दानुशासन में ऐसे अव्ययों का निर्देश किया है । कतिपय अव्ययों का विवेचन ____ अदु (अदुवा)-यह संस्कृत के अथ और अथवा दोनों अव्ययों के अर्थों को धारण करता है। प्राकृत में इसका प्रयोग आनन्तर्य, अब, इससे, अथवा, या आदि अर्थों में हुआ है । पाली भाषा में यह इन्हीं अर्थों में विनिविष्ट है। अथवा-नु सि गन्धवो अदु सकको पुरिन्दो-तू देवता है, गन्धर्व है अथवा इन्द्र है। आचारांग में यह अनेक बार प्रयुक्त हुआ है:___आनन्तर्य के अर्थ में- 'अदु पोरिसिं तिरियं भित्ति । अथवा–अदु थावरा तसत्ताए। ___अवि-यह संस्कृत अव्यय 'अपि' से निकला है जिसका अर्थ है यह, वाद, और, इतना होने पर, आगे, भी, जब, तब आदि । इंडोजर्मन भाषा में ope, Pi, opi शब्द मिलता है। पाली में बहुशः स्थलों पर 'अपि का प्रयोग हुआ है । प्राकृत में अवधारण, समुच्चय, संभावना, विलाप, वाक्य के उपन्यास तथा पादपूरण में भी अवि (अपि) का विनियोजन हुआ है । आचारांग के उपधानश्रुत में अनेक स्थलों पर यह शब्द विनियुक्त है तुलसी प्रज्ञा ११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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