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________________ प्राकृत भाषा के कतिपय अव्यय नत्र एवं वि उपसर्ग पूर्वक गत्यर्थक इण् ( इण गती ) धातु से अच् प्रत्यय करने पर अव्यय शब्द निष्पन्न होता है । 'न व्येति तदव्ययम्' अर्थात् जो कभी व्यय न हो । कोश ग्रंथों में इसके अपरिवर्तनशील, अखण्ड अकाट्य, अविनश्वर, शाश्वत, मितव्ययी आदि अर्थं उपलब्ध होते हैं । प्रस्तुत सन्दर्भ में व्याकरण शास्त्र के पारिभाषिक शब्द 'अव्यय' का विवेचन अवषेय है जो अपने मूल अर्थ को ही धारण करता है । व्याकरण शास्त्र में अव्यय सदा अपरिवर्तनशील रूप में रहता है केवल सान्धिक विकारों को छोड़कर । सन्धि प्रक्रिया में अव्यय विकृत हो जाते हैं, यथा चैव, एवमेव, अम्हेत्थ आदि । संसार के आद्य भाषाचार्यं महर्षि यास्क ने पदों को चार भागों में विभाजित किया है - नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात । निपात अव्यय का ही अपर अभिधान है । 'उच्चावचेषु अर्थेषु निपतन्ति इति निपाताः " अर्थात् जो विभिन्न अर्थों में निपतित होते हैं, परन्तु अपरिवर्तनशील रहते हैं और सर्वथा अविकृत रूप में रहते हैं । अतः यास्क के अनुसार जो अपने स्वरूप में स्थित होते हुए विभिन्न अर्थों को प्रकट करें वे निपात हैं । - भगवान् पाणिनि ने पदों को दो रूपों-सुबन्त और तिङन्त में विभाजित करते हुए अभ्ययों को सुबन्त के अन्तर्गत रखा है क्योंकि अविभक्तिक शब्दों को वाक्य में " विनियोजन का निषेध है - " अपदं न प्रयुञ्जीत " । " शब्दों (प्रकृति, धातु एवं प्रातिपदिक) में सुप् भौर तिङ् विभक्तियों को लगाकर पद बनाया जाता है और तब वाक्य में प्रयोग किया जाता है । अव्यय के साथ भी विभक्ति प्रयोग अनिवार्य है लेकिन उसका लाप हो जाता है । पाणिनि ने पांच सूत्रों के अन्तर्गत अव्ययों का संकलन किया है १. स्वरादिनिपातमव्ययम् - (१.१.३७ ) २, तद्धितश्चासर्वविभक्ति (१.१.३८ ) ३. कृन्मेजन्तः (१.१.३९) E डॉ० हरिशंकर पांडेय ४. क्त्वातोसुनकसुनः (१.१.४० ) ५. अव्ययी भावश्च (१.१.४१ ) । : महाभाष्यकार ने अव्यय की परिभाषा इस प्रकार दी है खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only ११० www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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