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________________ दौरान उसने रास्ते में पड़ने वाले तीर्थस्थानों की मरम्मत, सफाई, साज-सज्जा, मन्दिरों का जीर्णोद्वार एवं मूर्तियों की पूजा की" और दीन दुःखियों तथा ब्राह्मणों को रत्नादि का दान किया ।" तीर्थयात्रा से वापस आने पर उसकी धार्मिक भावना और अधिक प्रबल हो गयी । उसने प्रत्येक ग्राम, नगर, पत्तन एवं पर्वतादि को धार्मिक वातावरण से परिपूर्ण कर दिया ।" इतना ही नहीं, उसने विविध चैत्यों, पोषधशालाओं, कूपों एवं सरोवरों का निर्माण भी कराया । इसप्रकार उसका उत्तरकालीन जीवन धर्म-कर्म के विस्तार में ही व्यतीत हुआ । ६६ कवि बालचन्द्रसूरि ने वस्तुपाल की मृत्यु की घटना को एक नाटकीय ढंग से व्यक्त किया है । तदनुसार वस्तुपाल, धर्म की पुत्री सद्गति का पाणिग्रहण करने के लिए वि० सं० १२९६, माघ, कृष्णा, पंचमी, रविवार को प्रातः काल शत्रु जय पर्वत पर जाता है । वहां आदिनाथ के मंदिर में मूर्ति के समक्ष पाणिग्रहण के पश्चात् वह सद्गति के साथ स्वर्ग पहुंचता है, जहां देवगण उसकी स्तुति करते हैं । ६७ ६९ वस्तुपाल के अंतिम समम एवं मृत्यु आदि से सम्बन्धित घटनाओं के सम्बन्ध में कई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं । 'वाट्सन म्यूजियम, राजकोट' के एक शिलालेख में उसकी विमल और रेवतक पर्वतों की यात्राओं का स्पष्ट विवरण दिया गया है । 'सुकृतकीत्तिकल्लोलिनी' प्रभृति ग्रन्थों में उसके धार्मिक कृत्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है ।" प्रबन्धकोश के अनुसार वस्तुपाल की मृत्यु वि० सं० १२९८ में 'अकेवालिया' नामक स्थान पर हुई थी । " प्रबन्धचिन्तामणि में भी वस्तुपाल की मृत्यु इसी स्थान पर बतलायी गयी है । " यह स्थान धवल्लका नगर एवं शत्रु जय पर्वत के मध्य में स्थित है । यही पर वस्तुपाल के पुत्र जैत्र सिंह एवं उसके अनुज तेजपाल ने वस्तुपाल की मृत्यु के उपरान्त स्वर्गारोहण मंदिर का निर्माण कराया था । " अतएव वस्तुपाल की मृत्यु का स्थान 'अंकेवालिया' मानना ज्यादा तर्कसंगत प्रतीत होता है । वसन्तविलास महाकाव्य के सम्पादक सी० डी० दलाल महोदय ने एक पुरानी हस्तलिखित प्रति के आधार पर वस्तुपाल की मृत्यु सं० १२९६ में ही स्वीकार की है - ' सं० १२९६ महं० वस्तुपालो दिवंगतः । इससे वन्सतविलास महाकाव्य में उल्लिखित वस्तुपाल की मृत्यु- तिथि की पुष्टि होती है । वस्तुतः वस्तुपाल की मृत्यु- तिथि का इससे अधिक स्पष्ट उल्लेख अन्यत्र दुर्लभ है । महाकाव्य का महत्त्व वसन्त विलास महाकाव्य के रचयिता बालचन्द्रसूरि काव्य-नायक वस्तुपाल के समसामयिक कवि थे । अतएव इस महाकाव्य में वर्णित ऐतिहासिक घटनाओं की सत्यता के सम्बन्ध में संदिग्धता के अवसर बहुत कम हैं। गुजरात के मध्यकालीन इतिहास की जानकारी के लिए यह महाकाव्य अत्यन्त उपयोगी है। इसमें मूलराज प्रथम से लेकर मीम द्वितीय तक ग्यारह चौलुक्य नरेशों का क्रमवद्ध इतिहास वर्णित है । इसी क्रम में चौलुक्यों की वघेलाशाखा एवं वस्तुपाल के पूर्वजों के वर्णन के पश्चात् वस्तुपाल एवं तेजपाल की मन्त्रीपद पर नियुक्त सम्बन्धी घटना पर भी प्रकाश डाला खण्ड १८, अंक २, (जुलाई-सित०, ९२ ) ११३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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