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तत्कालीन ग्रन्थों में लूणसाकनरेश के विस्तृत परिचय का अभाव है । वस्तुपाल की भृगुकच्छ के शासक शंख पर विजय
वसन्तविलास महाकाव्य के पञ्चम सर्ग में वस्तुपाल और शंख के मध्य होने वाले युद्ध का विस्तार से वर्णन किया गया है। तदनुसार जिस समय वीरधवल, लूणसाकमरेश और मारवाड़ के राजाओं के मध्य होने वाले युद्ध में गया था, उसी समय लाट देश के चाहमान शासक शंख ने स्तम्भतीर्थ पर आक्रमण कर दिया था ।" उस समय स्तम्भतीर्थ पर वस्तुपाल प्रशासन कर रहा था ।
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सर्वप्रथम शंख वस्तुपाल के पास दूत भेजता है जो वस्तुपाल को प्रलोभन देते हुए उसके समक्ष सन्धि का प्रस्ताव रखता है । तत्पश्चात् दूत वस्तुपाल को शंख के पराक्रम से भयभीत कराते हुए युद्ध की चुनौती भी देता है ।' वस्तुपाल सन्धिवार्ता को ठुकराकर युद्ध की चुनौती सोत्साह स्वीकार कर लेता है । फलस्वरूप शंख और वस्तुपाल के मध्य भीषण संग्राम होता है ।
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इस युद्ध में जब वस्तुपाल के सैनिकों ने शंख की सेना को नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया | शंख के अनेक सैनिक मारे गये और बहुत से घायल हुए तब शंख अपने ही समान बलशाली अपने भाइयों सहित युद्ध भूमि में उतर पड़ा, जिससे एक बार पुनः युद्ध में भयंकरता आ गयी । शंख के भाइयों ने वस्तुपाल के वीरम आदि प्रमुख योद्धाओं को मार डाला । तत्पश्चात् वस्तुपाल का वीर सेनानायक भुवनपाल शंख को मारने की प्रतिज्ञा करके युद्ध-स्थल में आया । उसने अपने भाले से शंख पर प्रहार किया, लेकिन शंख ने उसके भाले को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और भुवनपाल को मौत के घाट उतार दिया ।" इसके बाद क्रुद्ध वस्तुपाल एक बहुत बड़ी सामना करने आया । उसकी विशाल सेना को देखते ही भयभीत शंख युद्ध-भूमि को छोड़कर राजधानी भृगुकच्छ को वापस हो गया । इसप्रकार इस युद्ध में विजयश्री महामात्य वस्तुपाल को प्राप्त हुई ।'
सेना लेकर शंख का
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उपर्युक्त युद्ध का विवरण अन्य ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है ।" मेरुतुङ्गाचार्यं कृत प्रबन्धचिन्तामणि' से ज्ञात होता है कि स्तम्भतीर्थ के प्रसिद्ध व्यापारी सईद से वस्तुपान का विरोध हो जाने के कारण, उसी ने शंख को वस्तुपाल से युद्ध करने के लिए आमंत्रित किया था । इस युद्ध की तिथि का निश्चित उल्लेख कहीं नहीं मिलता है लेकिन अनुमान है कि वि० सं० १२७९ में वस्तुपाल के पुत्र जैत्रसिंह के खम्भात के गर्वनर पद पर नियुक्त होने से पूर्व यह युद्ध हुआ था । "
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वस्तुपाल की मृत्यु
वसन्त विलास महाकाव्य में महामात्य वस्तुपाल के उत्तरकालीन जीवन का विवरण भी प्रस्तुत किया गया है। चाहमान शासक शङ्ख पर विजयोपरान्त उसके जीवन की प्रमुख घटना उसकी धार्मिक यात्रा है । इस यात्रा में संघ बनाकर उसने संघाधिपति के रूप में विमलगिरि ( शत्रुञ्जय पर्वत ) पर आदिनाथ, प्रभासपाटन में सोमनाथ" तथा रैवतकगिरि ( गिरिनार पर्वत ) पर नेमिनाथ " की यात्रा की । यात्रा के
तुलसी प्रज्ञा
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