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६. वरांगचरित में सिद्धसेन के "सन्मति तकं" का बहुत अधिक अनुसरण देखा जाता है । अनेक आधारों से यह सिद्ध होता है कि सन्मति तर्क के कर्ता सिद्धसेन किसी भी स्थिति में दिगम्बर परम्परा-से सम्बद्ध नहीं रहे हैं। यदि वे पांचवीं शती के पश्चात् हुए हैं तो निश्चित ही श्वेताम्बर हैं और यदि उसके पूर्व हुए हैं तो अधिक से अधिक श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा की पूर्वज उत्तरभारतीय निर्ग्रन्थ धारा से सम्बद्ध रहे हैं । उनके 'सन्मति तर्क' में क्रमवाद के साथ-साथ युगपवाद की समीक्षा, आगमिक परम्परा का अनुसरण,कृति का महाराष्ट्री प्राकृत में होना आदि तथ्य इस संभावना को पुष्ट करते हैं । वरांगचरित के २६ वें सर्ग के अनेक श्लोक 'सन्मति तर्क' के प्रथम और तृतीय काण्ड की गाथाओं का संस्कृत रूपांतरण मात्र लगते हैं ।
देखेंवरांगचरित सन्मिति तर्क वरांगचरित सन्मति तर्क २६/५२
१/५२ २६/५३
२६/६९ २६/५४ १/११
२६/७० ३/५४ २६/५५ १/१२
२६/७१ २६/५७ १/१७
२६/७२ ३/५३ २६/५८
२६/७८ २६/६० १/२१
२६/९० २६/६१ १/२५
२६/९९ ३/६७ २६/६२
१/२३-२४ २६/१०० ३/६८ २६/६३ २६/६४
१/५१ वरांगचरितकार जटासिंहनन्दि द्वारा सिद्धसेन का यह अनुसरण इस बात का सूचक है कि वे सिद्धसेन से निकट रूप से जुड़े हुए हैं । सिद्धसेन का प्रभाव श्वेताम्बरों के साथ-साथ यापनीयों और यापनीयों के कारण पुन्नाटसंघीय आचार्यों एवं पंचस्तूपान्वय के आचार्यों पर भी देखा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दि उस यापनीय अथवा कूर्चक परम्परा से सम्बन्धित रहे होंगे जो अनेक बातों में श्वेताम्बरों की मागमिक परम्परा के निकट थी। यदि सिद्धसेन श्वेताम्बर और यापनीयों के पूर्वज आचार्य है तो यापनीय आचार्यों के द्वारा उनका अनुसरण संमव है।
७. वरांगचरित में, अनेक संदर्भो में आगमों, प्रकीर्णकों एवं नियुक्तियों का अनुसरण किया गया है । सर्वप्रथम तो उसमें कहा गया है-“वरांगमुनि ने अल्पकाल में ही भाचारांग और अनेक प्रकीर्णकों का सम्यक् अध्ययन करके क्रमपूर्वक अंगों एवं पूर्वो का मध्ययन किया। इस प्रसंग में प्रकीर्णकों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । विषयवस्तु की दृष्टि से तो इसके अनेक सर्गों में आगमों का अनुसरण देखा जाता है । विशेष रूप से स्वर्ग, नरक, कर्मसिद्धांत आदि सम्बन्धी विवरण में उत्तराध्ययन सूत्र का अनुसरण हुआ है । जटासिंहनन्दि ने चतुर्थ सर्ग में जो कर्म सिद्धांत का विवरण दिया है उसके अनेक
तुलसी प्रज्ञा
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