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उपलब्ध होते हैं (देखें जैन शिलालेख संग्रह भाग ५ लेख क्रमांक १/७) । इसके अतिरिक्त स्वयं डॉ० उपाध्ये ने १२ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के कुछ शिलालेखों में काणरगण के सिंहनन्दि के उल्लेख को स्वीकार किया है। यद्यपि इस लेखों में काणरगण के इन सिंहनन्दि को कहीं मूलसंघ और कहीं कुन्दकुन्दा वय का बताया गया है। लेकिन स्मरण रखना होगा कि यह लेख उस समय का है जब यापनीय गण भी अपने को मूलसंघ से जोड़ने लगे थे । पुनः इन लेखों में सिंहनन्दि का काणू र गण के आद्याचार्य के रूप में उल्लेख है। उनकी परम्परा में प्रभाचन्द्र, गुणचन्द्र, माघनन्दि प्रमाचन्द्र, अनन्तवीर्य, मुनिचन्द्र, प्रभाचंद आदि का उल्लेख है --यह लेख तो बहुत समय पश्चात् लिखा गया है । पुनः इन लेखों में भी प्रारम्भ में जटासिंहनन्दि आचार्य का उल्लेख है, वहां न तो मूलसंघ का उल्लेख है और न कुन्दकुन्दान्वय का। वहां मात्र काणूरगण का उल्लेख है । यह काणू र गण प्रारम्भ में यापनीय गण था। अतः सिद्ध है कि जटासिंहनन्दि काणूरगण के आद्याचार्य रहे होंगे । इन शिलालेखों में सिंहनन्दि को गंग वंश का समुद्धारक कहा गया है। यदि गंग वंश का प्रारम्भ ई० सन् चतुर्थ शती माना जाता है तो गंगवंश के संस्थापक सिंहनन्दि जटासिंहनन्दि से भिन्न होने चाहिए । पुनः काणूरगण का अस्तित्व भी ई० सन् की ७ वीं-८ वीं शती के पूर्व ज्ञात नहीं होता है । सम्भावना यही है कि जटासिंहनन्दि काणूरगण के आद्याचार्य रहे हों और उनका गंग वंश पर अधिक प्रभाव रहा हो । अतः आगे चलकर उन्हें गंगवंश का उद्धारक मान लिया गया हो तथा गंगवंश के उद्धार की कथा उनसे जोड़ दी गई हो।
३. जन्न ने अनन्तनाथ पुराण में न केवल जटासिंहनन्दि का उल्लेख किया है अपितु उनके साथ-साथ ही काणू र गण के इन्द्रनन्दि आचार्य का भी उल्लेख किया है । हम छेदपिण्ड शास्त्र की परम्परा की चर्चा करते समय अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध कर चुके हैं कि जटासिंहनन्दि के समकालीन या उनसे किंचित् परवर्ती ये इन्द्र नन्दि रहे हैं।" जिनका उल्लेख शाकटायन आदि अनेक यापनीय आचार्यों ने किया है। जन्न ने जटासिंहनन्दि और इन्द्र नन्दि दोनों को काणू रगण का बताया है । इससे उनके कथन में अविश्वसनीयता जैसी कोई बात नहीं लगती है ।
४. कोप्पल में उपलब्ध (पुरानी कन्नड़ में) एक लेख भी उपलब्ध होता है जिसके अनुसार जटा सिंहनन्दि के चरण-चिह्नों को चाव्वय ने बनवाया था। इससे यह सिद्ध होता है कि जटासिंहनन्दि का समाधिमरण सम्भवतः कोप्पल में हुआ हो। पुनः डॉ० उपाध्ये ने गणभेद नामक अप्रकाशित कन्नड़ ग्रंथ के आधार पर यह भी मान लिया है कि कोप्पल या कोपन यापनीयों की मुख्य पीठ थी।" अतः कोप्पल कोपन से सम्बन्धित होने के कारण जटासिंहनन्दि के यापनीय होने की सम्भावना अधिक प्रबल प्रतीत होती है।
५. यापनीय परम्परा में मुनि के लिए 'यति' का प्रयोग अधिक प्रचलित रहा है। :: यापनीय आचार्य पाल्य कीर्ति शाकटायन को 'यतिग्रामाग्रणी' कहा गया है । हम देखते हैं कि जटा सिंहनन्दि के इस वरांगचरित में भी मुनि के लिए यति शब्द का प्रयोग । बहुतायत से हुआ है ।२४ ग्रन्थकार की यह प्रवृत्ति उसके यापनीय होने का संकेत करती
खण्ड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ९२)
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