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________________ धर्मामृत (ई० सन् १११२)' में और पार्श्वपंडित ने अपने पावपुराण (ई० सन् १२०५) में, जन्न ने अपने अनन्तनाथ पुराण (ई० सन् १२०९) में,° गुणवर्ग द्वितीय ने अपने पुष्पदंतपुराण (ई० सन् १२३०)" में, कमल भवन ने अपने शांतिनाथ पुराण (ई० सन् १२३३)२ में और महाबल कवि ने अपने ने मनाथ पुराण (ई० सन् १२५४) में," जटासिंहनन्दि का उल्लेख किया है। इन सभी उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि जटा सिंहनन्दि यापनीय, श्वेताम्बर और दिगम्बर तीनों ही परम्पराओं में मान्य रहे हैं । फिर भी सर्वप्रथम पुन्नाटसंघीय जिनसेन के द्वारा जटा सिंहनन्दि का आदरपूर्वक उल्लेख यह बताता है कि वे सम्भवतः यापनीय परम्परा से सम्बन्धित रहे हों।" क्योंकि पुन्नाटसंघ का विकास यापनीय पुन्नागवृक्ष मूलगण से ही हुआ है ।५ पुनः श्वेताम्बर आचार्य उद्योतन सूरि ने यापनीय आचार्य रविषेण और उनके ग्रन्थ पद्मचरित के साथ-साथ जटासिंहनन्दि के वरांगचरित का उल्लेख किया है । इससे ऐसी कल्पना की जा सकती है कि दोनों एक ही परम्परा के और समकालिक रहे होंगे । पुनः श्वेताम्बर और यापनीय में एक-दूसरे के ग्रन्थों के अध्ययन की परम्परा रही है । यापनीय आचार्य प्राचीन श्वेताम्बर आचार्यों के ग्रन्थों को पढ़ते थे । जटासिंहनन्दि के द्वारा प्रकीर्णकों, आवश्यकनियुक्ति तथा सिद्धसेन के सन्मति तर्क और विमलसूरि के पउमचरिय का अनुसरण यही बताता है कि वे यापनीय सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे होंगे । क्योंकि यापनीयों द्वारा इन ग्रन्थों का अध्ययन अध्यापन एवं अनुसरण किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण दिए जा सकते हैं । यह हो सकता है कि जटासिंहनन्दि यापनीय न होकर कूर्चक सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे हों और यह कूर्चक सम्प्रदाय भी यापनीयों की भांति श्वेताम्बरों के अति निकट रहा हो । यद्यपि इस सम्बन्ध में विस्तृत गवेषणा अभी अपेक्षित है । २. जटासिंहनन्दि यापनीय परम्परा से सम्बद्ध रहे हैं इस सम्बन्ध में जो बाह्य साक्ष्य उपलब्ध हैं उनमें प्रथम यह है कि कन्नड़ कवि जन्न ने जटासिंहनन्दि को 'काणरगण' का बताया है । अनेक अभिलेखों से यह सिद्ध होता है कि यह काणू रगण प्रारम्भ में यापनीय परम्परा का एक गण था। इस गण का सर्वप्रथम उल्लेख सौदंती के ई० सन् दसवीं शती (९८८) के एक अभिलेख में मिलता है । इस अभिलेख में गण के साथ यापनीय संघ का भी स्पष्ट निर्देष है। यह सम्भव है कि इस गण का अस्तित्व इसके पूर्व सातवीं-आठवीं सदी में भी रहा हो । डॉ० उपाध्ये. जन्न के इस अभिलेख को शंका की दृष्टि से देखते हैं। उनकी इस शंका के दो कारण हैं- एक तो यह कि गणों की उत्पत्ति और इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है, दूसरे जटा सिंहनन्दि जन्म के समकालीन भी नहीं हैं । यह सत्य है कि दोनों में लगभग पांच सौ वर्ष का अन्तराल है । किन्तु मात्र कालभेद के कारण जन्न का कथन भ्रांत हो, हम डॉ० उपाध्ये के इस मन्तव्य से सहमत नहीं हैं । यह ठीक है कि यापनीय परम्परा के काणू र आदि कुछ गणों का उल्लेख आगे चलकर मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय के साथ भी हुआ है किन्तु इससे उनका मूल में यापनीय होना अप्रमाणित नहीं हो जाता । काण र गण के ही १२वीं शताब्दी तक के अभिलेखों में यापनीय संघ के उल्लेख ९४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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