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थोड़ा परिवर्तित रूप मिलता है । उसके मत में प्रकृति का अध्यक्ष ईश्वर है । उसी की अध्यक्षता में प्रकृति जगत् को पैदा करती है अन्यथा अचेतन जड़ात्मिका प्रकृति में यह क्षमता नहीं आ सकती थी । "
इस प्रकार गीता ने प्रकृति को ईश्वर की अपेक्षा निम्न कोटि का स्थान दिया है । सांख्य के अनुसार जगत् की कारणभूता अजन्मा प्रकृति ही सबसे अव्यक्त है । अतः सांख्य ग्रन्थों में उसी के लिए " अव्यक्त" शब्द का प्रयोग पाया जाता है जबकि गीता ( ८/२० - २१ ) में अव्यक्त का प्रयोग व्यक्ताव्यक्त से परे, प्रकृति पुरुष के ऊपर एक विशिष्ट तत्त्व ' अक्षरब्रह्म" या 'परब्रह्म" के लिए किया गया है। पुरुषोत्तम अक्षर तत्त्व परा प्रकृति से भी उत्तम है। गीता इसे ही सर्वकमं समर्पण कर देने के लिए कहती है । यह सम्पूर्ण संसार को अपनी योगशक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित है । गीता की यह कल्पना पुरुषसूक्त (ऋग्वेद १०।९०1३) के समान है । यह जगत् पुरुष का केवल पादमात्र है उसके तीन पाद अमृत आकाश में स्थित हैं- "पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।" गीता में सृष्टि रचना करने वाले चेतन एवं जड़ दो तत्त्वों को ईश्वर का ही अंश माना गया है । चेतन एवं जड़ अथवा परा और अपरा प्रकृति क्रमश: सांख्य के पुरुष और प्रकृति स्थानी तत्त्व हैं । मूलतः ईश्वर ही चराचर सृष्टि के रचयिता हैं । सांख्य की प्रकृति की तरह अपरा प्रकृति बुद्धि, मन, अहंकार, भूत, शरीरादि को जन्म देती है । परा प्रकृति सांख्याभिमत पुरुष की तरह अनेक न होकर अद्वैतवेदान्त के ब्रह्म के समान मूलतः एक ही है । गीतासम्मत ईश्वर के रूप को सांख्य में नहीं माना गया है ।
इस प्रकार सांख्य एवं गीता में स्वीकृत "प्रकृति' में शाब्दिक साम्य अधिक है, स्वरूपगत साम्य कम । उपर्युक्त संक्षिप्त तुलनात्मक विश्लेषण से सांख्य दर्शन एवं भगवद्गीता में मान्य प्रकृति तत्त्व का अन्तर स्पष्ट है । गीता में सांख्य का प्रकृतिपुरुषबाद ज्यों का त्यों नहीं है अपितु उसमें औपनिषद ब्रह्मवाद, सांख्य के प्रकृतिपुरुषवाद और भागवत धर्म के ईश्वरवाद का मनोहर समन्वय हो गया प्रतीत होता है । सन्दर्भः
१. ( क ) श्वेताश्वेतरोपनिषद् - ४१५, सांख्यतत्त्वकौमुदी का मंगलाचरण श्लोक (ख) सांख्यसूत्र - १ । ६१, तत्त्ववैशारदी, पृ० २०१, आनन्दाश्रम संस्करण ( ग ) योगसूत्र - २ । १८ ( व्यास भाष्य सहित )
२. सांख्यकारिका - १२, १४
३. वही, १३
४. ( क ) वही, ८, ११, १४, १५, १६
(ख) हेतुमनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् ।
सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥ - वही, १०
५. वही, २१
६. वही, २२ - २७, ३१, ३२, ३४, ३८, ३९, ४३, ४६, ५२ आदि ।
खंड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ६२ )
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