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करण, शब्दस्पर्शादि पांच इन्द्रिय विषय (२४ प्रकार के) क्षेत्र कहलाते हैं । इस प्रकार सांख्य सम्मत २४ तत्त्व अपरा प्रकृति के अन्तर्गत आते हैं। इच्छाद्वेषादि को न्याय-वैशेषिक आत्मा या क्षेत्रज्ञ का गुण मानते हैं परन्तु गीता के अनुसार इनका ' सम्बन्ध क्षेत्रज्ञ से न होकर क्षेत्र से ही है। तकर्मों का फल धारण करने के कारण या भोगायतन होने से शरीर को भी क्षेत्र (खेत) कहा जाता है (गीता-१३।१)।
अपरा प्रकृति भगवान के साथ अनादिकाल से सम्बन्धित एवं अविशुद्ध है । इसे अधिष्ठान मानकर भगवान् सृष्टि रचना करते हैं । भगवान् अपनी प्रकृति को अधिष्ठान मानकर अपनी माया की सहायता से संसार में अवतार लेते हैं
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृति स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्म मायया ॥"-गीता-४१६
अपरा प्रकृति से ही बन्धन की प्राप्ति होती है। प्रलयकाल में समस्त भूतों का इसी में लय होता है एवं पुनः सृष्ट्यारम्भ में इसी से इनकी उत्पत्ति होती है।" प्रतिक्षण क्षय को प्राप्त होने वाली अथवा क्षरभावी शरीरेन्द्रियादि के रूप वाली अपरा प्रकृति जीवों के आश्रित होती है एवं संसार की हेतुरूप है। यह ज्ञेय तथा जड़ होने के कारण ज्ञाता, चेतन जीव रूपा परा प्रकृति से सर्वथा भिन्न और निकृष्ट है । इस प्रकार गीता में प्रकृति भगवान् रूप अद्वैत तत्त्व से सम्बद्ध बतायी गयी है । भगवान् की दो प्रकृतियां-जड़ एवं चेतन हैं। एक से संसार के सभी जड़ तत्त्वों की उत्पत्ति होती है जबकि दूसरी से चेतन तत्त्व की। इन्हें सांख्यसम्मत प्रकृति और परुष कहा जा सकता है । वस्तुतः सांख्य और गीता की प्रकृति में अनेक प्रकार के साम्य और वैषम्य हैं । दोनों के तत्त्वविवेचन में पार्थक्य है। दोनों की प्रकृति एक नहीं है किन्तु कहीं एक-सी भी है।
__ सांख्यसम्मत प्रकृति की गीता में मान्य अपरा प्रकृति से अत्यधिक समानता है । दोनों ही चेतन के साथ संयोग से समस्त भौतिक संसार की रचना करती हैं । बुद्धि, मनादि सभी अचेतन वस्तुयें इन्हीं से उत्पन्न होती है और इन्हीं में लीन होती हैं । इस साम्य के आगे दोनों में वैषम्य बढ़ता गया है।
सांख्य दर्शन में गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है परन्तु गीता की प्रकृति तीनों गुणों की कारण है । गुण उसके कार्य हैं । इसलिए 'गुणः' पद के सथ 'प्रकृतिजः' (३१५, १८।४), 'प्रकृतिजान्' (१३।२१), 'प्रकृतिसम्भवान्' (१३।१९), प्रकृतिसम्भवाः इत्यादि विशेषण देकर अन्यत्र भी स्थान-स्थान पर गुणों को प्रकृति का कार्य बतलाया गया है । सांख्य की प्रकृति स्वतंत्र, अनादि, नित्य एवं मूल तत्त्व है जबकि गीता की प्रकृति अनादि (१३।१९) तो है किन्तु स्वतंत्र एवं मूल तत्त्व नहीं । सांख्यशास्त्र में अचेतन एवं जड़ प्रकृति तथा चेतन पुरुष को प्रतिपादित कर यह बतलाया गया है कि इनसे पृथक् तीसरा तत्त्व नहीं है किन्तु गीता का दृष्टिकोण दूसरा है । उसकी दृष्टि में इन दोनों से परे भी एक सर्वव्यापक, अव्यक्त तथा अमृत तत्त्व है जिससे चराचर सृष्टि का जन्म होता है । सांख्याभिमत प्रकृति-पुरुष उस व्यापक बह्म के विभूतिमात्र हैं । सांख्य के अनुसार प्रकृति से ही जगत् की उत्पत्ति होती है । गीता में इस विचार का
तुलसी प्रज्ञा
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