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________________ के कारण की कल्पना होने पर अनवस्था दोष हो जाता है । प्रकृति और पुरुष के संयोग से गुणक्षोभ होता है जिससे सृष्टि उत्पन्न होने लगती है ।" तदनन्तर बुद्धि (महत्) अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, तन्मात्रा, पृथिवी - जलतेजादि पञ्च महाभूत्, विभिन्न प्रकार के शरीर, बौद्धिक और भौतिक सर्ग उत्पन्न होने लगते हैं ।' प्रलयकाल में समस्त तत्व अपने-अपते कारण में लीन होते जाते हैं और अन्त में सभी का लय प्रकृति में हो जाता है । इस प्रकार सांख्य की प्रकृति समस्त संसार की उत्पादिका है । श्री भगवद् गीता में तीन तत्वों का वर्णन मिलता है- क्षर, अक्षर एवं पुरुषोत्तम । क्षर और अक्षर पुरुषोत्तम के ही अंश हैं । इनमें पुरुषोत्तम प्रधान है । इन्हें परमात्मा, ईश्वर, वासुदेव, कृष्ण, प्रभु, साक्षी, महायोगेश्वर, ब्रह्म, अधियज्ञ, विष्णु, परम पुरुष, परम अक्षर, योगेश्वर आदि भी कहते हैं । भगवान् की विभूति ही आभ्यन्तर एवं वाह्य जगत् में सर्वत्र व्याप्त है । यह सभी भूतों के जनक-संहारक, सर्वव्यापी, निर्गुण, होते हुए भी सभी गुणों के भोक्ता, अखण्ड होते हुए भी सभी जीवों में अलग-अलग विद्यमान, ज्ञानस्वरूप, जगत् के लय के कारण, त्रिगुणातीत होते हुए भी तीनों गुणों के जनक, सत्-असत् दोनों से परे, चर-अचर, दूरस्थ, अन्तिकस्थ, निमित्तादि उपाधियों से रहित, जगत् की उत्पत्ति और लय का स्थान, समस्त प्राणियों में व्याप्त एवं समस्त वस्तुओं का सार है । जल में रस, चन्द्रमा सूर्य में प्रकाश, वेदों में ओंकार, आकाश में शब्द, पुरुषों में पुरुषत्व, पृथिवी में गन्ध, अग्नि में तेज, प्राणियों में उनका जीवन, तपस्वियों में तप, बुद्धिमानों की बुद्धि, बलवानों का बल आदि है ।" पुरुषोंत्तम एक अंश से जगत् को व्याप्त कर स्थित होता है। इसका नाम है- अपर भाव या विश्वानुग रूप, परन्तु भगवान् केवल जगन्मात्र ही नहीं हैं प्रत्युत वे इसे अतिक्रमण करने वाले भी हैं । यह अनुत्तम, अव्यय परभाव या विश्वातिग रूप ही उनका यथार्थ रूप है ।" यही गीता का परम गुह्यतम और विशिष्ट रूप है । इस स्वरूप के साक्षात्कर्ता भगवद्भाव को प्राप्त करते हैं ।" उपनिषदों के समान गीता में भी ब्रह्म या पुरुषोत्तम को सर्वव्यापक कहा गया है । गीता में ब्रह्म शब्द निर्गुण, निराकार, सच्चिदानन्दघन परमात्मा का वाचक है - वेद, ब्रह्मा, प्रकृति आदि का नहीं। गीता में अद्वैत का रूप स्वतन्त्र एवं शाङ्कर वेदान्त से सर्वथा भिन्न है । भगवान् स्रष्टा, साधुओं के रक्षक, धर्मपालक, शुभकर्मोपदेष्टा एवं जगत् कल्याण के पथ-प्रदर्शक हैं । भगवान् माया से . कभी अलग नहीं होते हैं । त्रिगुणमयी माया इनकी देवी शक्ति है । अचिन्त्य होने से माया को सत्-असत् कुछ नहीं कहा जा सकता । स्वयं आप्तकाम होने पर भी ये कर्म . से विरत नहीं होते । भगवान् से पृथक् कोई सत्ता नहीं है । सृष्टि के आदि में भगवान् संकल्प करते हैं कि "मैं एक ही बहुत हो जाऊं" तब पुनः अर्थात् प्रलयोपरान्त जीव, जगतादि की रचना होती है । भगवान् का यह आदि संकल्प ही अचेतन प्रकृति रूप योनि में चेतन रूप बीज की स्थापना करता है । यही जड़-चेतन का संयोग है । इससे सब भूतों की उत्पत्ति होती है ।" कर्मानुसार जीवोत्पत्ति होती है । चेतन एवं अचेतन प्रकृति या अक्षर और क्षर रूपों में पुरुषोत्तम के अंशों का वर्णन उपलब्ध होता है तुलसी प्रज्ञा ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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