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सांख्य दर्शन और गीता में 'प्रकृति'-एक विवेचन
- डॉ० कमला पंत
लेखिका का विगत अंक में 'षड् आस्तिक एवं वौद्धदर्शनों में मान्य कर्मवाद से जैनसम्मत कर्मवाद की विशिष्टता'-शीर्षक लेख छपा था। प्रस्तुत लेख में उसने सांख्य दर्शन और गीता में प्रयुक्त 'प्रकृति' तत्त्व का सूक्ष्म विवेचन किया है।
उसके विवेचन से इस ऐतिहासिक तथ्य का भी उद्घाटन होता है कि गीता में सांख्य और वैशेषिक-चिन्तन से पूर्व का सिद्धांत है किन्तु वह उत्तरोत्तर विकसित होता चला आया है।
---सम्पादक] सांख्य दर्शन एवं गीता में समस्त अचेतन जगत् की रचना करने वाले तत्त्व के लिए "प्रकृति" शब्द प्रयुक्त है। सामान्यतः दोनों दर्शनों में स्वीकृत प्रकृति शब्द, स्वरूप एवं कार्य की दृष्टि से एक ही तत्त्व प्रतीत होता है किन्तु दोनों में अन्तर हैप्रस्तुत लेख में उसकी तुलनात्मक विवेचना की जा रही है।
सांख्यदर्शन में प्रकृति और पुरुष दो मूलतत्त्व स्वीकार किए गए हैं । यह संसार प्रकृतिमूलक है। जगत् का मूल स्वरूप सूक्ष्म प्रकृति के रूप में है जिससे जगत् के इस दृश्यमान रूप का विकास हुआ है । प्रकृति सत्त्व, रजस् एवं तमस् की साम्यावस्था है अर्थात् सत्त्व, रजस् एवं तमस् तीनों गुण जब समान दशा में रहते हैं तो प्रकृति तत्त्व कहलाते हैं। प्रकृति में इन तीनों गुणों के विद्यमान रहने के कारण समस्त सांसारिक पदार्थों में ये तीनों गुण रहते हैं। एक ही वस्तु किसी के हृदय में आनन्द, किसी के हृदय में दुःख एवं किसी (तीसरे) व्यक्ति के हृदय में मोह पैदा करती है। वही तत्त्व प्रकृति कहा जा सकता है जो विभिन्न विकारों या कार्यों के रूप में परिणत होता है। पुरुष प्रकृति न होने के कारण ही निर्विकार रहता है, किसी भी विकृति को जन्म नहीं देता । प्रकृति के तीनों गुण क्रमशः सुखदुःखमोहात्मक हैं। ये गुण परस्पर विरोधी होते हुए भी पुरुष के भोग और मोक्ष रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिए मिलकर दीपक (दीपक में तेल, वत्ती एवं आग मिलकर प्रकाश करते हैं) के समान कार्य (क्रमशः प्रकाशन, प्रवर्तन और नियमन) करते हैं ।' प्रकृति जड़, एक, नित्य. संसार की जननी, निरवयव, स्वतन्त्र, व्यापक, अनाश्रित, स्वाधार, अलिंग एवं अपरिमित है ।' इस तत्त्व को अव्यक्त, प्रधान, प्रकृति आदि भिन्न-भिन्न संज्ञायें दी गयी हैं। इस तत्त्व
· खण्ड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ६२)
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