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________________ अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी काल विभाग कालोsaafपणीत्येक उत्सर्पिण्यपरोऽपिच । एते समाहृते कल्पो विभागा द्वादशानयोः ॥ सुषमासुषमान्ता च द्वितीया सुषमेति च । सुषमा दुःषमान्तान्या सुषमान्ता च दुःषमा ॥ पंचमी दुःषमेत्येव समा षष्ठ्यतिदुःषमा । विभागा अवसर्पिण्यामितरस्यां विपर्ययः ।। चतस्रश्च ततस्तिस्रो द्वे च तासां क्रमात् स्मृताः सागरोपमकोटीनां कोटचो व तिसृणामपि ॥ द्विचत्वारिंशतान्यूना सहस्ररब्द संख्यया । कोटीकोटी भवेदेका चतुर्थ्यां तु प्रमाणतः ॥ पंचम्यब्द सहस्राणामेकविंशति रेव सा । तावत्येव समा षष्ठी कोटी कोट्यो दशैवताः ॥ अर्थात् एक अवसर्पिणी और दूसरा उत्सर्पिणी इस प्रकार से सामान्यरूप से काल के दो भेद हैं । इन दोनों को सम्मिलित रूप में कल्प कहा जाता है । दोनों में बारह विभाग हैं। सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादुःषमा, दुःषमा सुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा - ये छह अवसर्पिणी काल के और इनके विपरीत उत्सर्पिणी काल के छह विभाग होते हैं । इनमें प्रथम तीन कालों का प्रमाण यथाक्रम से चार, तीन और दो कोड़ाकोड़ि सागरोपम माना गया है । चतुर्थ काल का प्रमाण ४२ सहस्र अब्द कम कोड़ाकोड़ि सागरोपम तथा पांचवे का प्रमाण २१ सहस्र अब्द मात्र है । इतना ही छठे विभाग का भी काल है । इस प्रकार छहों विभागों का काल दश कोड़ाकोड़ि सागरोपम बनता है । - लोक विभाग ( ५. २-७ ) से नोट : यह कालमान एक हजार समा तुल्य हो सकता है । अर्थात् सुषमासुषमा = - ४०० + सुषमा = ३०० + सुषमादुःषमा २०० + दुःषमा सुषमा= ५८+ दुःषमा=२१+ अतिदुःषमा २१ = १००० अथवा कोटी -संपादक कोट्योरु | ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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