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________________ इसी प्रकार पाणिनि सूत्र (२-२-५) पर भाष्य करते हुए पतंजलि कहते हैं कि जिससे मतियों का उपचय और अपचय लक्षित हो वह काल है। सूर्य की गति से युक्त होने पर वह दिनरात की संज्ञा पाता है और सूर्यगति की अनेकशः आवृत्ति सम्पन्न होने पर म स और संवत्सर का अभिधान पा लेता है। - सर्वांश में काल एक है परन्तु उपाधि के कारण अनेकविध होता है। उपाधि सूर्य की क्रिया है जिसके लिए शीघ्रता-विलंबित, भूत वर्तमान भविष्य, क्षण-मुहूर्तदिनरात-पक्ष-मास-संवत्सर-युग आदि की कल्पना की गई है । भर्तृहरि के शब्दों में काल वह द्रव्य है जो क्रिया से सर्वथा पृथक् पर सब कुछ में समाया हुआ है। इस प्रकार सर्वत्र, वह उत्पत्ति का कारण है और जैसे एक ही पुरुष कर्म विशेष करने से शिल्पकार, लोहार आदि संज्ञा पा लेता है, वैसे ही काल भी अलग-अलग अभिधान पा लेता है।" मान और अवयव महानारायण उपनिषद् (१-८) और वाजसनेयी संहिता (३२-२) में लिखा है, कि-"सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युतः पुरुषादधि"- अर्थात् निमेष आदि समस्त कालावयव विद्युत् पुरुष से पैदा हुए हैं । बृहदारण्यक उपनिषद् (३-८-९) भी कहता है कि उस अक्षर के प्रशासन में जैसे सूर्य और चन्द्रमा को पृथक्-पृथक् रखा गया है, वैसे ही निमेष, मुहूर्त आदि को भी पृथक्-पृथक रखा गया है। महानारायण उपनिषद् में ही काल के विभागों की-निमेष, कला, मुहूर्त, काष्ठा, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु आदि के रूप में गणना भी दी गई है । मनुस्मृति (१-६४) में इनका मान दिया है-१८ निमेष= १ काष्ठा; ३० काष्ठा=१ कला; ३० कला= १ मुहूर्त; ३० मुहूर्त= १ अहोरात्र । वायु पुराण (५७.६) और विष्णु धर्मोत्तर (१-७३) पुराण में निमेष को लघु अक्षर तुल्य कहा गया है लध्वक्षर समा मात्रा निमेषः परिकीर्तितः । अतः सूक्ष्मतरः कालो नोपलम्यो भृगूत्तम ॥ अर्थशास्त्र (२-२०) में निमेष से भी अधिक सूक्ष्म कालमान दिया है जो इस प्रकार हैं कालमानमत ऊर्ध्वम् । त्रुटो लवो निमेषः काष्ठा कला नाडिका मुहूर्तः पूर्वापरभागौ दिवसो रात्रिः पक्षो मास ऋतुरयनं संवत्सरो युगमिति कालाः । द्वौत्रुटो लवः । द्वौ लवौ निमेषः । पंच निमेषाः काष्ठा। त्रिंशत्काष्ठाः कला । चत्वारिंशस्कलाः नाडिका। द्वि नाडिका मुहूर्तः। पंचदक्ष मुहूर्तो दिवसो रात्रिश्च । चैत्र मास्याश्च युजे मासे च भवतः ।। वायुपुराण (५०-१६९ और ५७-७), मत्स्य (१४२-४), विष्णु (२.८.५९), ब्रह्माण्ड (२-२९-६) और महाभारत (शा० २३२-१२) में यह मान कुछ भिन्न the काष्ठा निमेषादश पंच चैव त्रिशच्च काष्ठा गंणयेत्कलास्ताः । त्रिंशत्कलाश्चैव भवेन्मुहूर्तस्तत्त्रिंशता राज्यहनी समेते ॥ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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