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________________ शब्द ज्ञानानुपाती लौकिकानां व्युत्थित दर्शनानां वस्तु स्वरूप इव वभासते । क्षणस्तु वस्तुपतितः क्रमावलम्बी। क्रमश्च क्षणानन्तर्यात्मा तं कालविदः काल इत्याचक्षते योगिनः । न च द्वो क्षणो सह भवतः । क्रमश्च न द्वयोः सहभुवोरसम्भवात् पूर्वस्मादुत्तरस्य भाविनो यदानन्तर्ये क्षणस्य स क्रमः । तस्माद्वत्तमाम एवैकः क्षणः न पूर्वोत्तरक्षणाः सन्तीति तस्मानास्ति तत्समाहारः । ये तु भूत भाविनः क्षणास्ते परिणामाग्धिता व्याख्येयास्तेन केन क्षणेन कृत्स्नो लोकः परिणाम मनुभवति तत्क्षणोपारूढाः खल्वमी सर्वे धर्मा स्तयोः क्षण तस्कमयोः संयमात् तयोः साक्षात्करणं ततश्च विवेकजं ज्ञानं प्रादुर्भवति । द्रव्य का अपकर्ष परमाणु है और उसका काल्पनिक परम अपकर्ष क्षण । परमाणु के एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने की अवधि क्षण है और उसका जाना-आना क्रम । इस क्रमिक क्षण का समाहार मुहूर्त, अहोरात्रादि है । दूसरे शब्दों में काल, वस्तु नहीं, केवल क्षण का क्रम है, क्योंकि योग शास्त्र अनुसार दो क्षणों का कभी समाहार नहीं होता। जिस प्रकार देश के अत्यंत सूक्ष्मतम अवयव की परमाणु संज्ञा है, उसी प्रकार काल का सूक्ष्मतम अंश क्षण है । क्षण, वस्तु के परिणाम क्रम से लक्षित होता है । वह धारा रूप में प्रवाहित होता है । अतः क्रमावलम्बी क्षण ही वास्तविक पदार्थ है और कालवेत्ता उसके क्रम को ही काल कहते हैं । इस प्रकार, इस क्षण और क्रम को जो जान लेता है, उसे विवेकज ज्ञान हो जाता है । सूर्य सिद्धांत (१. १०-११) में काल के दो प्रकार बताए गए हैं लोकानामन्तकृत्कालः कालोन्य कलनात्मकः । स द्विधा स्थूल सूक्ष्मत्वान्मूर्तश्चामूर्त उच्यते ।। प्राणाविः कथितो मूर्तस्त्रयाद्योऽमूर्त संज्ञकः । षड्भिः प्राविनाड़ी स्यात् तत्षष्ट्या नाडिका स्मृता ॥ नाडी षष्ट्या तु नाक्षत्रमहोरात्रं प्रकीर्तितम् ।। कि काल लोक का विनाशकर्ता और संगणक होने से स्थूल-सूक्ष्म (मूर्त-अमूर्त) दो प्रकार का है । जैसे प्राणादि मूर्त हैं और श्रुटि आदि गणना अमूर्त है । ___चरक संहिता (१. ४८०) ने काल को नौ द्रव्यों में गिना है किन्तु सुश्रुत संहिता (२-३-५) में काल स्वयंभू है । उ सका आदि, मध्य और अन्त नहीं होता। वह पदार्थों की बलवत्ता और निर्वी यता का कारण होता है। उसी से मनुष्यों में जीवन-मरण होता है। यह काल है क्योंकि सूक्ष्मतम कला (अवधि) में भी वह लय नहीं होता, किंतु सब कुछ को अपने में विलय कर लेता है। संवत्सर होकर यही काल सूर्य की गति विशेष से पलक झपने (निमेष) से काष्ठा, कला, मुहूत्तं, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि में विभक्त हो जाता है ।' खण्ड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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