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________________ अथान्यत्राप्युक्तं-अन्नं वा अस्य सर्वस्य योनिः । कालाश्चान्नस्य । सूर्यो योनिः कालस्य । -एवं हि आह । कालात् स्रवन्ति भूतानि कालाद् वृद्धि प्रयन्ति च । काले चास्तं नि यच्छन्ति कालो मूर्ति र मूर्तिमान् । द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे कालश्चा कालश्चाथ यः प्रागादित्यात्सोऽकालोऽकलोऽथ य आदित्यायः स कालः सकलः वा एतद्रूपं यत्संवत्सरः संवत्सरात्खल्विमाः प्रजाः प्रजायन्ते संवत्सरेणेह वै जाता विवर्धयन्ते संवत्सरे प्रत्यस्तं यन्ति तस्मात्संवत्सरो वै प्रजापतिः कालोऽन्नं ब्रह्म नीडमात्मा चेत्येवं हि आह ! कालः पचति भूतानि सर्वाण्येव महात्मनि । यस्मिंस्तु पच्यते कालो यस्तं वेद स वेदवित् ।' जैसा कि अन्यत्र भी कहा गया है, सबकुछ का स्रोत अन्न ही है। अन्न का स्रोत काल है । काल का स्रोत सूर्य है। इस प्रकार समस्त पदार्थ काल से पैदा होते हैं । काल से वृद्धि पाते हैं। काल में ही विलीन हो जाते हैं। दूसरे शब्दों मेंकाल ही अपने को मूर्त और अमूर्त करता रहता है। ब्रह्म के दो रूप हैं। एक काल और दूसरा अकाल । सूर्य-निर्माण से पूर्व का ब्रह्म रूप अकाल है जिसकी कोई अवधि (कला) नहीं किन्तु सूर्य-निर्माण के बाद का काल सावयव है । उसका अवयव (कला) संवत्सर है । संवत्सर में समस्त प्रजा पैदा होती है । संवत्सर में ही बढ़ती है । संवत्सर में ही विलोप होती है । संवत्सर प्रजापति है, काल है, अन्न है, ब्रह्मा है और आत्मा है । इसीलिये कहा जाता है कि काल सभी को पचाता है, किन्तु जिसमें काल पवता है, उसे जो जानता है वही ज्ञानी, वेदवित् होता है । महाभारत के आदि पर्व (१.२४८-२५०) में इसी बात को यूं कहा गया है कालः स्रजति भूतानि कालः संहरते प्रजा:। संहन्तं प्रजा: कालं काल: शमयते पुनः ॥ कालो हि कुरुते भावान् सर्व लोके शुभाशुभम् । कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजाविसमते पुनः ।। कालः सुप्तेषु जागति कालो हि दुरतिक्रमः । कि काल प्राणियों का सृजन करता है और काल ही उन्हें मारता है । काल को उसकी प्रजा मारती है और काल शांत हो जाता है। सब लोकों के शुभाशुभ भावों को काल बनाता है । वह सब कुछ को समेटता है और पुनः बखेरता है । इस प्रकार काल सदैव जागृत रहता है, इसलिये उसकी गति को समझना बहुत कठिन है । वह दुरतिक्रम __योग सूत्र (३.५२) में काल की किंचित् भिन्न पर दिलचस्प व्याख्या है । 'क्षण तत् क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्'-इस सूत्र पर भाष्यकार लिखता है यथा अपकर्षपर्यन्तं द्रव्यं परमाणुरेवं परमापकर्षपर्यन्तं कालः क्षणो यावता वा समयेन चलितः परमाणुः पूर्वदेशं जह्यादुत्तरदेशमुपसंपधेत स कालः क्षणः तत्प्रवाहाविच्छेदस्तु क्रमः क्षण तत्क्रमयो नास्ति वस्तु समाहार इति । बुद्धि समाहारो मुहूर्ताहोरात्रादयः । स खस्वयं कालो वस्तु शून्योऽपि बुद्धिनिर्माणः तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524571
Book TitleTulsi Prajna 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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