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________________ उन्नति का माध्यम समझा था अवनति का कारण वही बनी। हिंदी इंग्लिश के झंझट में फंसकर नर सब ही क्लांत बने । (पृ० ४२) कवि की भाषा सहज और व्यावहारिक है। कुछ प्रयोग अवश्य खटकते हैं जैसे ध्वंसित, अंतदिल (पृ० ३०) सभी कविताएं तुकान्त एवं गेय हैं। 'तुलसी स्कूल' के साहित्यकारों में मुनिजी ने इस रचना से अपना एक स्थान बनाया है। हिंदी जगत् उनकी उपलब्धियों से निरन्तर समृद्ध हो रहा है, यह प्रसन्नता का विषय है। -डॉ० आनन्दमंगल वाजपेयी स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, राजकीय महाविद्यालय, डीडवाना ५. राजस्थली-५१---संपादक, श्याम महर्षि, प्रकाशक, हनुमान पुरोहित, अध्यक्ष, राष्ट्र भाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्री डूंगरगढ़, मूल्य-आठ रुपए । अनियतकालीन प्रकाशनों की कड़ी में 'परम्परा' के बाद 'राजस्थली' का भी नाम जुड़ गया है। यह प्रकाशन भी लोक चेतना जगाने को शुरू हुआ है किन्तु ‘परम्परा' से हटकर साहित्यिक पत्रिका के रूप में। सम्पादकीय में, संपादक ने साहित्यिक पत्रिकाओं के सामने आने वाली समस्याएं और आर्थिक तंगी को उजागर करते हुए भी राजस्थानी साहित्य सम्मेलन जैसी भारतीय स्तर की संस्था की आवश्यकता को ज्वलंत बताया है । वास्तव में आज का माहौल राजस्थानी भाषियों के लिए चेतने-जागने का है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में स्वीकृति राष्ट्र भाषाओं में राजस्थानी का नाम नहीं है और भी बहुत सी भाषाओं का नाम नहीं है, किन्तु मणिपुरी, कोंकणी आदि के भाषाभाषी जैसे जागरूक हैं वैसे राजस्थानी भाषाभाषी नहीं हैं। कहना न होगा, राजस्थानी भाषा भारतीय भाषा-परम्परा में सर्वोत्कृष्ट, समृद्ध और अक्षुण्ण जीवंत भाषा है। उसके वाङ्मय और शब्द-परम्परा में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का इतिहास छुपा है । वैदिक और श्रमण संस्कृतियों की क्रीड़ा स्थली-राजस्थली में वह आज भी जीवंत है । पत्रिका में कहानी, व्यंग्य और कविताएं प्रकाशित हैं। कुछ अनुवादित भी हैं। मुलदागालीयेव भाषा की कविताओं का अनुवाद अच्छा बन पड़ा है। 'मम्मी री समाधी' में अनुवाद ने अनगड़ शब्दों से कहानी के मूल प्रवाह को रोक दिया लगता है। ओंकारश्री का नया प्रयोग-'राम नाम सत्त' भी नया प्रयोग मात्र बन पड़ा है, किन्तु सर्वांश में यह प्रकाशन भविष्य में अनियत सामग्री लेकर भी आ सकता है। -परमेश्वर सोलंकी खण्ड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, ६२) ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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