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ऐसे जीवनोपयोगी साहित्य की रचना करके मुनि ने एक अभाव की पूर्ति की है। प्रकाशन के लिए आदर्श साहित्य संघ, चूरू बधाई का पात्र है।
४. मंजिल की पहुंच-मुनि मोहनलाल सुजान, प्रकाशक-शाह गोरखचंद पन्नालाल फोला मेहता बालोतरा वि०सं० २०३३, पृ० ७६, मूल्य-४.५० ।
'मंजिल की पहुंच' मुनि मोहनलाल सुजान की ४९ कविताओं का संकलन है। 'स्वकथ्य' में मुनिजी ने 'साहित्य साधना को लक्ष्य प्राप्ति के लिए विशिष्टतम साधन' माना है । कवि जैन साधु है । उनकी साधना निश्चित ही मोक्ष प्राप्ति का लक्ष्य लेकर चल रही है। उस लक्ष्य की प्राप्ति में कविता विशिष्टतम साधन किस रूप में हैं, यह विचार्य है।
मुनिजी कहते हैंयद्यपि मंजिल बड़ी दूर है जिसको पाने उत्कंठित हूं। किंतु पथिक मैं युग-युग का चलने से भी चिर-परिचित हूं ॥ (पृ० ७१)
मार्ग की बाधाएं अनेक बार गति कुंठित करती हैं फिर भी निरंतर आगे बढ़ने का दृढ़ निश्चय लेकर वे चल रहे हैं। उन्हें मनुष्य के पुरुषार्थ पर पूरा विश्वास है साधना करके वह स्वयं सिद्ध तीर्थंकर और भगवान् बन सकता है। सृष्टि की लघु इकाई होकर भी अनन्त बनने की क्षमता रखता है। जैन-चिन्तन के इस विशिष्ट तथ्य को कवि ने प्रथम कविता में बहुत सशक्त रूप में व्यक्त किया है
दीप लघु-सा हो भले ही सूर्य का अवतार है वह ।
धूप में कुछ भी न तम में किंतु पहरेदार है वह ।। (पृ० ३) वर्तमान युग में अविवेक, जड़ता, भौतिकता एवं आचारहीनता बढ़ रही है परन्तु यह मनुष्य की सहज प्रकृति नहीं है अतः कवि को लगता है कि 'युग गति बदलना चाहता है।' (पृ० ४-५) उसे मनुष्य की प्रगति पर अटल विश्वास है । महामुक्ति का लक्ष्य लेकर चलने वाले मुनिजी का निश्चय है कि 'बन्धन के लघु अणुओं में भी महामुक्ति का द्वार मिलेगा।' (पृ० ३४) इससे स्पष्ट है कि मुनिजी ने जैन-दर्शन के तत्त्व निर्णय को गहराई से आत्मसात् किया है । 'बंध' का परिज्ञान होने पर ही मुमुक्षु भावसंवर एवं द्रव्यसंवर का वरण करता है । वह मानसिक उद्योग और नैतिक प्रयत्नों के लिए तत्पर होकर कर्म मार्ग का निरोध करता है। तभी वह मुक्ति की ओर बढ़ पाता है। कहना न होगा कि मुनिजी का भाग्य 'संवर' की सहज अभिव्यक्ति है और इस अर्थ में इसे 'लक्ष्य प्राप्ति में उत्कृष्टतम साधन' कहा जा सकता है । 'मंजिल की पहुंच' शीर्षक कदाचित् इधर ही संकेत करता है।
कवि की सभी रचनाओं में आत्मालोचन एवं निवृत्ति की चेतना प्रखर रूप में व्यक्त हैं । अंतिम नौ कविताओं में आचार्य तुलसी के प्रति अगाध श्रद्धा प्रकट करके कवि ने संतमत की परिपाटी में मान्य गुरु-उपासना को बहुमान दिया है।
इस संकलन में यथावकाश वर्तमान समस्याओं पर भी विचार किया गया है । जैसे २१वीं कविता में भाषा-विवाद पर मुनिजी की टिप्पणी द्रष्टव्य है
तुलसी प्रज्ञा
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