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षड् आस्तिक एवं बौद्ध दर्शनों में मान्य कर्मवाद से जैनसम्मत कर्मवाद की विशिष्टता
डॉ० कमला पन्त
भारतीय अध्यात्मवाद में "कर्म" ( रागद्वेषादिमूलक मानसिक, वाचिक एवं कायिक चेष्टाओं) का महत्त्वपूर्ण स्थान है । सभी भारतीय दार्शनिकों ने देहेन्द्रिय, सुख-दु:ख एवं विविध योनियों में जन्मादि रूप बन्ध का कारण "कर्म" को माना है । कर्म के स्वरूप में मतभेद होते हुए भी भारतीय दर्शनों में एकमत से कृतकर्मों को अनिवार्य रूप से फलदायी कहा है, चाहे कर्म स्वयं अपना फल दें या ईश्वर, अपूर्व, अदृष्ट और धर्माधर्म के माध्यम से फलित हों । पुण्य-पाप या शुभाशुभ दोनों कर्म मनः शुद्धि में सहायक होते हैं । वेद, ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद् न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा वेदान्त, द्वैताद्वैत आदि दर्शनों और बौद्ध एवं जैन- परम्परा, सभी कर्मवाद के समर्थक हैं ।
अन्य दर्शनों से भिन्न जैनमत में कर्म को भौतिक, पौद्गलिक या अणु रूप स्वीकार किया गया है । यद्यपि अन्य भारतीय अध्यात्मवादियों के समान जैन दार्शनिकों ने भी कर्म और जीव के सम्बन्ध के फलस्वरूप जीव के शुद्ध स्वरूप में परिवर्तन माना है, किन्तु अन्यत्र कर्म की पुद्गल के रूप में कल्पना नहीं की गयी है । संक्षेप में सांख्य की प्रकृति एवं वेदांत की माया या अविद्या जो कार्य करती हैं, जैन- दर्शन में वही भूमिका कर्म पुद्गलों की है । स्याद्वादियों के अनुसार कर्म समस्त वासनाओं का समूह या कार्मण शरीर है । कार्मण शरीर जीव के साथ रहता है । इसमें भुक्त कर्मों के पुद्गल अलग होते जाते हैं एवं उपार्जित कर्मों के पुद्गल आते रहते हैं ।
जैन दर्शन की दूसरी उल्लेखनीय विशेषता है, आत्मा से चिपके कर्म पुद्गलों में पाप और पुण्य की अधिकता और न्यूनता के अनुसार कृष्ण, शुक्ल, पद्म, पीत आदि रंगों का समायोजन स्वीकार करना । आत्मलिप्त कर्मपुद्गलों से निकलने वाली आणविक आभा या लेश्या (रंग योजना ) का अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता है । विभिन्न वैज्ञानिक खोजों से भी प्रत्येक संसारी जीव के शरीर से विकीर्ण होने वाली आणविक आभा ( या जैनसम्मत लेश्या) का अस्तित्व प्रमाणित हुआ है' । पातञ्जल दर्शन में कर्मों के शुक्ल और कृष्ण वर्ण की कल्पना की गयी है ।
भारतीय अध्यात्मवाद के अनुसार संसारी जीवों के जीवन का निर्माण कर्म पर ही निर्भर है किंतु किस कर्म से किस फल की प्राप्ति होती है ? जैन-दर्शन के अतिरिक्त
खण्ड १८, अंक १ ( अप्रैल-जून, १२ )
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