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विप्रतारितमन्तमनः ? येन यद् दुराचीणं तेन तद् भुक्तमेव अन्तर्मनः साक्ष्येण ।"
प्रस्तुत कृति ज्ञान और अनुभव दोनों के विकास में सहयोगी बन सकती है । इसकी रचना वि० सं० २००४ में पड़िहारा ( राज० ) में हुई थी । मुनिश्री दुलहराज ने इसका भाषा में अनुवाद किया है ।
उत्तिष्ठत ! जागृत ! निकाय प्रमुख मुनिश्री बुद्धमल्ल द्वारा लिखित ७१ लघु निबंधों का संग्रह है । प्रस्तुत निबंधों में दृढ़ निश्चय, अटूट आत्म विश्वास, गहरी स्पन्दनशीलता और अप्रतिम उदारता की भावनाएं प्रस्फुटित हुई हैं । साहित्य में हृदय की आवाज होती है । अतः वह सीधा हृदय का स्पर्श करता है। कुछ मानसिक कुंठाएं इतनी गहरी होती हैं । जिन्हें तोड़ना हर एक के लिए सहज नहीं होता किन्तु साहित्य के माध्यम से वे अनायास ही टूट जाती हैं। प्रस्तुत कृति मानसिक कुंठाओं के घेरे को तोड़ कर आशा की आलोक रश्मि प्रदान करने में समर्थं बनी है। संस्कृत में गद्य काव्य को पद्य काव्य की अपेक्षा अधिक महत्व मिला है । कादम्बरी, हर्ष चरित्र, यशस्तिलक चम्पू, तिलक मंजरी तथा दशकुमार चरित जैसे प्राचीन गद्य महाकाव्यों में काव्य कौशल कम नहीं है । किन्तु काव्य की धारा सदा समान रसवाली नहीं होती । उसके मानदण्ड बदलते रहते हैं । आधुनिक युग में केवल प्रकृति, नगर, उद्यान, सरोवर, सरिता, वृक्ष आदि का वर्णन सुधीजनों को आकृष्ट नहीं करता । आज का शिक्षित मानस प्रकृति सौंदर्य की अपेक्षा वस्तुस्थिति का चित्रण अधिक पसन्द करता है । प्रस्तुत कृति में जीवन की वास्तविकता का स्पर्श हुआ है, यह इसके विज्ञ पाठकों का अनुभूत तथ्य है । काव्यकार ने जीवन की वास्तविकताओं का स्पर्श करते हुए लिखा है - "असफलताया दृषदि यावत् काठिन्यं दृश्येत, न तावत् सा तद् बिभति । अनवरतं प्रहरतस्ते संभवतोऽयमन्तिमः प्रहारः स्यात् । अतो युवन ! मा विरंसी एक वारं पुनः प्रहरस्व ।"
काव्यकार ने पुरुषार्थं की प्रेरणा देते हुए एक अन्य स्थान पर लिखा है - "युवक ! त्वया स्वसामर्थ्येन पूर्णतः विश्वसितेन भाव्यम् दैवसम्मुखे विनतीभूय गमनं तेषामकर्मन्यानां कार्यं विद्यते येषां सामथ्र्येन पराजयः स्वीकृतः । युवत्वं न कदापि पराजयते, न च विवशतया नमति । अतो हि त्वं देवस्य दासत्वं नहि, स्वामित्वं साधयित्वा जीव ।"
इसकी रचना वि० सं० २००६-७ के बीच की है। इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद मुनिश्री मोहनलाल "शार्दूल" ने किया है। दिल्ली से प्रकाशित होने वाले "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" में ये निबंध क्रमशः प्रकाशित हो चुके हैं ।
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तुलसी प्रज्ञा
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