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स्फूर्ता: स्वभावाः सकलाश्च भावा, मूर्ता इहैवात्र विलोक्यमानाः ॥ स्वतन्त्रतायाः प्रथमोऽस्ति दीपः, नतो न वा यत् स्खलितः क्वचिन्न । त्यागस्य पुण्यः प्रथमः प्रदीपः,
परम्पराणां प्रथमा प्रवृत्तिः ॥ समर्पणस्याद्यपदं विभाति,
विसर्जनं मानपदे प्रतिष्ठम् ।
शैलेशशैलीं विदधत् स्वकायें, शैलेश एष प्रतिभाति मूर्त्तः ॥
पूना की वाग्वधिनी सभा में "संस्कृत के मूर्धन्यविद्वानों" की एक गोष्ठी हुई । डा० एन० वारले ने आशुकविता का विषय देते हुए कहा
समयज्ञापकं नित्यं नव्यानां हरतभूषणम्,
स्रग्धरावृत्त मालम्ब्य घटीयंत्रं विवर्ण्यताम् ।
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ने तत्काल आशुकवित्व के श्लोक स्रग्धरावृत्त में बोलने प्रारंभ कर दिए ।
इसी प्रकार समस्यापूर्ति के लिए एक पंक्ति दी गई - "सिन्दूरबिन्दु विधवा ललाटे ।" इसकी पूर्ति करते हुए काव्यकार ने तत्काल पद्य रचना की । उदाहरण के रूप में यहां उसका एक श्लोक प्रस्तुत किया जा रहा है ।
सिन्दूर बिन्दुविधवाललाटे,
गंगागौरे कृतविदुमेयः ।
स्वरक्तिमानं नयने मुखेऽपि,
द्रष्टुः स्मयः किं प्रतिबिंबयेत् तत् ॥
प्रस्तुत कृति के पांच विभाग हैं। इसका हिन्दी भाषा ने किया है ।
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अनुवाद मुनिश्री दुलहराज
'मुकुलम्' युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा रचित संस्कृत के लघु निबन्धों का संकलन है । इसमें प्रांजल और प्रवाहपूर्ण भाषा में छात्रोपयोगी ४६ गद्यों का संकलन है। इसका विषय -- निर्वाचन बड़ी गहराई से किया गया है। इसमें वर्णनात्मक और भावनात्मक विषयों के साथ संवेदनात्मक विषयों का भी संधान किया गया है। काव्य के आधुनिक मानदण्डों के आधार पर वर्तमान में वही काव्य प्रशस्त माना जाता है जो संक्षिप्त, प्रसाद गुणयुक्त तथा स्वल्प सामासिक पद वाला हो । मुकुलम् इस कसौटी पर खरा उतरता है । काव्यकार ने अन्तर्मन की उद्वेलना का समीचीन चित्र खींचते हुए लिखा है - "परान् वंचयितुमर्हाभि चतुरानपि चार्हाभि विप्रतारयितुम, परं नार्हामि विप्रलब्धुमात्मानम् । कदा केन
खंड १८, अंक १, (अप्रैल-जून, १२ )
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