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________________ शब्दों का प्रयोग किया है ताकि पढ़ने मात्र से उसका तात्पर्य पाठक को आत्मसात् हो सके । इसकी रचना तेरापन्थ द्विशताब्दी समारोह के उपलक्ष में वि० सं० २०१७ में हुई थी। इसका मूलस्पर्शी संदर्भ, व्याख्या और निष्कर्ष श्री छगनलाल शास्त्री द्वारा लिखा गया है। खण्ड काव्यों की परम्परा में उक्त काव्यों के संक्षिप्त परिचय के अन्तर और भी अनेक काव्य हैं । जिनका परिचय अवशिष्ट रह जाता है । संस्कृत विद्यार्थियों के लिए उनके अध्ययन का स्वतंत्र महत्व है अतः उनमें से कुछ एक का नामोल्लेख करना आवश्यक और प्रासंगिक होगा। १. पाण्डव विजय : मुनिश्री डूंगरमल २. रोहिणेय : मुनिश्री बुद्धमल्ल (निकाय प्रमुख) ३. भान भास्कर काव्यम् : मुनिश्री धनराज (लाडनूं) ४. बंकचूल चरित्रम् :: मुनिश्री कन्हैयालाल ५. अभिज्ञानम् :: मुनि गुलाबचंद्र “निर्मोही" ६. कर्बुर काव्यम् : मुनिश्री मोहनलाल "शार्दूल" प्रकीर्णक काव्यः-संस्कृत भाषा के कवियों के वर्ण्य विषय की कोई सीमा नहीं है। उन्होंने विभिन्न विषयों पर अपनी प्रतिभा का पर्याप्त प्रभुत्व छोड़ा है । उन्होंने व्याकरण को लक्ष्य कर अनेक काव्यों का प्रणयन किया है । प्रकीर्णक काव्यों की समग्र नाम श्रृंखला का संकलन किया जाए तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ का निर्माण हो सकता है किंतु प्रस्तुत निबन्ध का प्रतिपाद्य मात्र तेरापन्थ के साहित्य का दिग्दर्शन है । तेरापन्थ में प्रकीर्णक काव्यों की परंपरा बहुत लम्बी रही है। किंतु उनमें अतुलातुला, मुकुलम्, उत्तिष्ठत जाग्रत आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। तुला-अतुला युवाचार्यश्री प्रहाप्रज्ञ द्वारा समय-समय पर आशुकवित्व, समस्या पूर्ति तथा अन्य प्रकार के रचित स्फुट श्लोकों का संग्रह है । संस्कृत के क्षेत्र में आशुकवित्व और भी अधिक कठिन है । जिसका व्याकरण, कोष, छन्द शास्त्र आदि पर आसाधारण अधिकार होता है तथा जिसकी कल्पना और मेधा तीव्र और गहरी होती है वही इसमें पारगामी बन सकता है। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ तेरापन्थ धर्मसंघ के बहुश्रुत आशुकवि एवं काव्यकार हैं। उन्होंने अनेक क्लिष्ट विषयों पर आशुकविता की है और अनेक जटिल समस्याओं की पूर्ति की है । मेधावी विद्वानों ने उसकी मुक्त भाव से सराहना की है। प्रस्तुत कृति के अध्ययन से काव्य के सभी तत्वों का सम्यग् बोध होता है । श्रवणबेलगोल (कर्णाटक) में बाहुबलि की विशाल मूति के समक्ष आशु कवित्व करते हुए कवि ने कहा शक्तियक्ति याति बाहुद्वयेन ज्ञानालोको मस्तवस्यो विभाति । आलोकानां माध्यमं चक्षुरेतत्, मोहाऽभावो व्यज्यते पुंस्कचिह ने ॥ शक्तिः समस्ता त्रिगुणात्यिकेयं, प्रत्यक्षभूता परिपीयतेऽत्र । तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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