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________________ अन्य दर्शनों में इसका स्पष्ट एवं विस्तृत वर्णन नहीं मिलता। वेदों में पाए जाने वाले कर्म यज्ञ के रूप में हैं और अनिवार्यतः फलदायी हैं।' उपनिषदों में भी बताया गया है कि कर्मानुसार अच्छे बुरे जन्म की प्राप्ति होती है। उपनिषदों में कर्मगति का देवयान और पितृयान के रूप में उल्लेख मिलता है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार "अदृष्ट" पाप. पुण्यों का समूह है, जो जीव को यथोचित एवं समयानुकूल सुखदुःखादि फल देता है। रागद्वेषादिमूलक प्रवृत्ति ही शुभाशुभ कर्मों का कारण है। न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में मान्य पञ्चविध कर्म (उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण एवं गमन') वस्तुतः कायिक चेष्टायें ही हैं । इनके अनुसार प्रलयावस्था में सब जीवों के मनस् पूर्वजन्मों के संस्कार और अदृष्ट रूप में धर्माधर्म (पुण्य-पाप) रहते हैं। ईश्वर में सिसृक्षा होने पर जीवों के अदृष्ट फल देने लगते हैं। योगसूत्रकार ने पुण्यकर्मों को शुक्ल और पापकर्मों को कृष्ण कहा है एवं कर्म-विभाग योगी और अयोगी के भेद से किया है । योगियों के कर्म अशुक्ल और अकृष्ण होते हैं। अयोगियों के कर्म शुक्ल, कृष्ण एवं कृष्ण-शुक्ल होते हैं । अयोगियों के कर्मों से बना कर्माशय (तीव्र संवेगादि से कृत कर्मों के कारण), अच्छी या बुरी जाति, आयु एवं भोग रूप फलों को (वर्तमान और भविष्य जन्मों) में देता रहता है। जन्म-जन्मान्तरों में किए गए प्रधान कर्म के अनुकूल फल निश्चित होते हैं। योग दर्शन में प्रतिक्षण प्राणी द्वारा किए जाने वाले कर्मो की तीन गतियां मानी गयी हैं—कृत कर्मफल का नष्ट हो जाना (शुक्ल कर्मोदय से कृष्ण कर्मों का इस जन्म में नाश'), प्रधान कर्म के साथ गौण रूप से फल देना एवं कर्मों का प्रधान कम से अभिभूत होकर चिरकाल तक पड़े रहना । मृत्यु के बाद अगला जन्म पूर्व वासनाओं की सहायता से ही होता है। जिस योनि में जन्म होने वाला है, उस योनि के कर्मफलों के भोगने योग्य जन्मान्तरकृत तदनुरूप कर्मोत्पन्न वासना व्यक्त होती है। वासनायें अपने हेतु (रागादि), फल, आश्रय (चित्त) एवं आलम्बन (विषयादि) के आधार पर विद्यमान रहती हैं । योग दर्शन के अनुसार नारकियों का दृष्टजन्मवेदनीय एवं जीवन्मुक्तों का अदृष्टजन्मवेदनीव कर्माशय नहीं होता है।' कुमारिल भट्ट का मत है कि भोगायतन (शरीर), भोग-साधन (इंद्रियां) एवं भोग्य विषय (रूप रस गंधादि) रूप त्रिविध बंधन, जीवों के भवबंध का कारण है । संसारी आत्मा में ज्ञान, सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार रहते हैं । धर्माधर्मवश जीव अनेक योनियों में भ्रमण करता रहता है। मीमांसकों के अनुसार "चलता है"-आदि प्रत्यय का विषय "कर्म" है। कुमारिल के विचार में यह चलनात्मक प्रत्यक्ष हैं और एक ही प्रकार का हैं अर्थात् वैशेषिक-सम्मत पञ्चभेदों का एक ही प्रकार में अंतर्भाव हो जाता है। प्रभाकर के अनुयायी कर्म को प्रत्यक्ष न मानकर संयोग विभागादि से अनुमेय मानते हैं । मीमांसा दर्शन में वैदिक धर्म (नित्य, नैमित्तिक, काम्य एवं निषिद्ध) सर्वोपरि माने गए हैं। वेदविहित कर्मों में मीमांसासम्मत विभिन्न धात्वर्थों, संख्या, देश, निमित्त, फल, प्रकरण, द्रव्य, देवता, प्रधान, अप्रधान आदि अनेक कारणों से कर्मभेद माना जा सकता है किंतु मुख्यतः पुण्य और पाप (क्रमशः सुख एवं दुःख देने वाले) दो ही कर्म होते हैं। वेद में मान्य कर्म, "धर्म" एवं वेदनिषिद्ध कर्म तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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