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उल्लेखनीय घटना थी, का बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में चित्रण किया गया है । इसके अध्ययन से जीवन दर्शन, तत्वदर्शन, इतिहास एवं परम्पराओं का समीचीन बोध होता है । इसका हिन्दी अनुवाद श्री छगनलाल शास्त्री ने किया है । खण्ड काव्य (गद्य-पद्य)
संस्कृत साहित्य के प्रति कुछ पश्चिमी समालोचकों का एक विशेष आरोप रहा है कि यह साहित्य नितान्त अलंकारपूर्ण और कृत्रिम है। उनकी आलोचनाओं से लगता है कि संस्कृत की नैसर्गिकता से वे परिचित नहीं हैं । कठिनाई यह है कि उनकी आलोचना को कुछ भारतीय समालोचकों ने भी प्रमाण मान लिया । यही कारण है कि भारतीय मानस में संस्कृत का जितना ग्रहण होना चाहिए उतना नहीं हो पा रहा है । वास्तविकता यह है कि संस्कृत भाषा के काव्यों में हृदय के भावों की उतनी ही स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है, जितनी किसी भी प्रौढ़ साहित्य के मान्य काव्यों में हो सकती है । संस्कृत के प्राचीन कवियों के काव्यों में यह सहज स्वाभाविकता है। वे सही अर्थ में मानव हृदय के पारखी थे। अपनी अनुभूति की अभिव्यंजना के लिए ही उन्होंने इस रसमयी पद्धति का आश्रय लिया । बाल्मीकि तथा व्यास पर, कालिदास तथा अश्वघोष पर कृत्रिम कविता लिखने का आरोप कोई भी समझदार आलोचक नहीं लगा सकता। निष्कर्ष यह है कि संस्कृत भाषा संसार की अन्य भाषाओं की तुलना में श्रेष्ठ है । इसका साहित्य समग्र सभ्य साहित्यों में प्राचीन, व्यापक और सुन्दर है।
___ महाकाव्यों की परम्परा के समानान्तर खण्ड काव्यों की परम्परा भी बहुत प्राचीन रही है। गद्य और पद्य-दोनों ही शैलियों में इनकी रचना हुई है । जैन आचार्यों और विद्वानों ने भी इस परंपरा को पर्याप्त विकसित किया है । विगत दशकों में तेरापन्थ धर्म संघ में भी इस काव्य परंपरा का इतिहास बहुत वर्धमान रहा है । अश्रुवीणा, रत्नपाल चरित्रम्, प्राकृत काश्मीरम् आदि काव्य इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं ।
__ "अश्रुवीणा" युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा मन्दाक्रांता छन्द में रचित सौ श्लोकों का एक खण्ड काव्य है। यह काव्य भर्तृहरि आदि विश्रत कवियों द्वारा रचित शतक काव्यों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम है। इस काव्य में एक ओर जहां शब्दों का वैभव है, वहां दूसरी ओर अर्थ की गंभीरता है । इसमें शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों एक दूसरे से बढ़े-चढ़े हैं । काव्यानुरागियों, तत्वजिज्ञासुओं तथा धर्म के रहस्य को प्राप्त करने की आकांक्षा वालों के लिए यह समान रूप से समादरणीय है। इस काव्य की कथावस्तु जैन आगमों से ग्रहण की गई है। भगवान् महावीर ने तेरह बातों का घोर अभिग्रह धारण किया था। वे घर-घर जाकर भी भिक्षा नहीं ले रहे थे क्योंकि अभिग्रह पूर्ण नहीं हो रहा था। उधर चंदनवाला राजा की पुत्री होकर भी अनेक कष्ट पूर्ण स्थितियों में से गुजर रही थी। उसका शिर मुंडित था। हाथों-पैरों में जंजीरें थीं। तीन दिनों की भूखी थी। छाज के कोने में उबले हुए उड़द थे। इस प्रकार अभिग्रह की अन्य सारी बातें तो मिल गई किन्तु उसकी आंखों में आंसू नहीं थे । महावीर उस एक बात की कमी देखकर वापस मुड़ गए। चन्दनबाला का हृदय दुःख से भर गया। उसकी आंखों में
खंड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, १२)
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