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अश्र ुधारा बह चली । उसने अपने अश्र - प्रवाह को दूत बनाकर भगवान् को अपना सन्देश भेजा । भगवान् वापस लौटे और उसके हाथ से उड़द ग्रहण किए । अश्रु प्रवाह के माध्यम से चन्दनबाला का संदेश ही प्रस्तुत काव्य का प्रतिपाद्य है । कालिदास ने अपने मेघदूत काव्य में मेघ को यक्ष का दूत बनाकर भेजा और अश्रु वीणा में अश्रु प्रवाह को चन्दनबाला का दूत बनाया गया है । चन्दनबाला अपने सन्देश में कहती हैधन्याः निद्रा स्मृति-परिवृढं निह, नुते या न देवं, धन्याः स्पप्नाः सुचिरमसकृद ये च साक्षान्नयन्ते । जाग्रत्कालः पलमपि न वा त्वां च सोढुं सहोऽभू,
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च्छ्लाध्योऽश्लाध्यः क्वचिदपि न वैकान्तदृष्ट्या विचार्यः ॥ आंसुओं को सम्बोधित करते हुए चन्दनबाला कहती हैदृश्यं पुण्यं चरित सततं पादचारेण सोऽयं, तस्माद् भूमि सरत पुरतः पादयोर्नृत्यताऽपि । संश्लिष्यन्तो हृदय गहन स्पशिभावान सजीवान्,
मार्गान्नाति व्रजति स यतस्तत्क्षणार्द्रान् सजीवान् ॥
प्रस्तुत काव्य का पारायण करने से ऐसा लगता है मानो हृदय के सजीव भावों का योग पाकर शब्द भी सजीव बन गए हों । संस्कृत साहित्य की गरिमा के सन्धान में यह काव्य महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्माण करेगा, ऐसा विद्वानों ने मुक्त भाव से स्वीकार किया है । इसकी रचना वि० सं० २०१६ में कलकत्ता - प्रवास के अवसर पर हुई ।
'रत्नपाल चरित्रम्' जैन पौराणिक आख्यान पर युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा रचित पद्यमय खण्डकाव्य है | पांच सर्गों में निबद्ध प्रस्तुत काव्य में कथानक की अपेक्षा कल्पना अधिक है | कल्पना काव्य का आभूषण है। किंतु उसकी भी एक मर्यादा है । कल्पना का अर्थ है - अनुभूति के प्रकाशन में सहायता देना । कभी-कभी कवि कल्पना को इतनी अधिक प्रधानता दे देता है कि काव्य का मूल भाव गौण हो जाता है । ऐसी कल्पना हृदय में रस-संचार नहीं करती । प्रस्तुत काव्य में कल्पना को इतना महत्त्व नहीं दिया गया है जिससे भाव गौण हो जाए। वस्तुतः कल्पना के लिए किसी प्रकार का कृत्रिम प्रयास नहीं है । वह सहज ओर वास्तविकता से अनुस्यूत है । रत्नवती रत्नपाल की खोज में जंगल में घूमती हुई वृक्षों, लताओं, फूलों आदि से बात करती हुई कहती है
सहकार ! त्वं भव सहकारी,
कामित निष्पत्तो संपन्नः ।
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कलरव मासादयति त्वत्तः, पिको न कि पतिमपि लप्स्यहम् || नाशोकां कुरुषे किमशोक !, मां च सशोकां प्रिय विरहेण । लज्जास्पद मपि भवितः सद्यो, नाम तदेवं गुणशून्यत्वात् ॥
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तुलसी प्रज्ञा
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