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गंगापुरं गहन शोक-समुद्रमग्नं, कस्यापि कुत्रचन काप्यभवन्न पृच्छा । माता स्वपुत्रमनुजं निजमेव बन्धुः, पत्नी च विस्मृतवती स्वपतिन्तदानीम् ॥ सीमन्तिनी प्रथममेव तथाञ्जयित्वा, नाक्षि द्वितीयमलमंजयितुं बभूव । क्षोरार्द्धकर्मणि करादपि नापितस्य, क्षित्यां क्षुरं निपतितं निशितं त्वरेव ॥
प्रासार्पणाय मुखमध्यमधि प्रविष्टा, हस्तांगुली बहिस्पेतु मभूवनर्हा । ग्रासोप्यधो न पतितो गलतो बुभुक्षोः, कोलाहले सति दियो गमनस्य कालोः ॥
वैद्यो गृहीत धमनिर्गद पीडितस्य, रोगं परीक्षितु मभूच्चकितो न शक्तः । निर्मीयमाण कविताऽन्तिमपद्यपूर्ति, चक्रे न भिन्नहृदयः कविपुंगवोऽपि ॥
जज्वाल भोजनकृते ज्वलनो न गेहे, घासं जघास न गवां समजः क्षुधातं' । शाखिस्थिताः शकुनयो रुरुवुविशेषात्, स्वर्गांगणं प्रविशति प्रकटं मुनीशे ॥
शब्द और साहित्य भिन्न-भिन्न है । साहित्य की तुट मिलने से ही शब्द में सजीवता आती है । साहित्य के अभाव में केवल शब्द रूक्ष भोजन के समान है । कवि ने इस तथ्य को अत्यन्त प्रांजल भाषा ' व्यक्त करते हुए लिखा है-
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शब्दानपि व्याकरणेन शुद्धान् छन्दोविधानादपि पद्यलग्नान् । शुष्काशनानीव सदात्यरुव्यान्, साहित्यसप रुचिरान् करोति ॥
सृष्टि में अनेक प्रकार की विचित्रतायें हैं । कहीं चाहने पर भी कुछ नहीं मिलता और कहीं न चाहने पर भी बहुत कुछ मिल जाता है । कवि ने इस तथ्य को प्रकट करते हुए कहा है
मुक्त शुक्तिर्नयति जलदात ऋन्दनादि विनैव ।
यां कुर्वन् मधुरवचसाप्येकबिन्दु पिकोन ॥
प्रस्तुत "हाकाव्य के पचीस सर्ग हैं जिनकी रचना वि० सं० २०१९ में धवल समारोह के अवसर पर हुई। इनमें स्थान-स्थान पर कवि के उत्कृष्ट शब्द शिल्पित्व का चित्र प्रस्तुत होता है । आचार्यश्री का जन्म, जो जागतिक अध्यात्म अभ्युदय की एक
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तुलसी प्रज्ञा
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