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महाकाव्य, भरत बाहुबलि महाकाव्य, जैन कुमार संभव, यशोधर चरित्र, पांडवचरित्र, विषष्टिशलाका पुरुष चरित्र आदि की गणना प्रमुख रूप से की जा सकती है।
महाकाव्यों की यह परम्परा बीसवीं शताब्दि में और अधिक वृद्धिगत हुई। तेरापंथ धर्म संघ में इस दिशा में एक नया उन्मेष आया और विगत दशकों में जो काव्य रचना हुई उसमें दो महाकाव्यो का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं
१. श्री भिक्षु महाकाव्यम् । २. श्री तुलसी महाकाव्यम् ।
श्री भिक्षुमहाकाव्यम् मुनिश्री नथमल 'नागौर' द्वारा रचित तेरापन्थ के आद्य प्रवतंक आचार्य भिक्षु के जीवन दर्शन पर प्रकाश डालने वाला चरित महाकाव्य है। इसकी शैली पद्यात्मक है । काव्यकार स्वयं प्रौढ़ संस्कृतज्ञ होने के कारण इसकी शब्द संकलना भी प्रौढ़ और भावपूर्ण है। राजस्थान की अरावली की घाटियों का वर्णन इसमें बहुत सजीव और प्राणवान है। महाकाव्य के लक्षणों से यह परिपूर्ण है । इसके १८ सर्ग हैं । इसकी यथेष्ट प्रसिद्धि और पठन-पाठन न होने का मुख्य कारण यही है कि यह काव्य अब तक अप्रकाशित है । इसकी रचना तेरापन्थ द्विशताब्दी के अवसर पर वि० सं० २०१७ में हुई थी।
श्री तुलसी महाकाव्यम् पं० रघुनन्दन शर्मा आयुर्वेदाचार्य की काव्य कृति है । इसमें आचार्य श्री तुलसी के जीवन दर्शन का समग्रता से विश्लेषण हुआ है । तेरापन्थ के संघाधिनायक के रूप में आचार्य श्री के यशस्वी जीवन के पचीस वर्षों की परिसम्पन्नता पर श्रद्धालुओं ने अपना शक्ति भर अर्य चढ़ाया। पंडितजी की प्रस्तुत कृति उसी अर्ध्य प्रस्तुतीकरण का एक अंग है।
पंडितजी में कवित्व की अद्भुत क्षमता थी। कविता उनकी सहचरी के रूप में नहीं, अपितु अनुचरी के रूप में प्रकट हुई-इस प्रतिपत्ति में विसंगति का लेश भी नहीं है । अत्यन्तऋजु और अकृत्रिम व्यक्तित्व के धनी पंडितजी में एक छलांग में ही महाकाव्य के गगन स्पर्श प्रासाद पर आरूढ़ होने की क्षमता थी। पंडितजी प्रच्छन्न कवियों में से एक थे । वे ख्याति और प्रसिद्धि से विरत थे । अतः उनकी विशेषताएं प्रच्छन्न ही रहीं। यदि वे प्रकट होती तो संभवतः संस्कृत विद्वान् के रूप में उन्हें राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त होता । प्रस्तुत काव्य में रस, अलंकार, भाव, भाषा आदि सभी दृष्टियों से पंडित जी के वैदग्ध्य की स्पष्ट झलक है । उन्होंने आधुनिक शब्दों, रूपकों और उपमाओं का प्रयोग करके संस्कृत भाषा को पुनरूज्जीवित करने का प्रयत्न किया है । पंडितजी की शब्द संरचना प्रसाद गुण संवलित है । पंडितजी जन्मना आशु कवि थे। अतः उन्हें सहज और सानुप्रास काव्य रचना का अभ्यास था। गंभीर और गूढ़ भावों को सरस और सरल पदावली में रखने की उनकी अद्भुत क्षमता थी। उनकी यह विशेषता इस महाकाव्य में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। पंडितजी की कल्पनाप्रसू संगीति का महारा पाकर वस्तु सत्य वास्तव में ही वस्तुसत्य के रूप में उभरा है। आचार्यश्री कालूगणी के स्वर्गवास के समय गंगापुर का चित्रण, कवि की उसी मौलिक विशेषता की एक झलक हैखंड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, ६२)
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