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________________ तेरापन्थ का संस्कृत साहित्य : उद्भव और विकास (२) मुनिश्री गुलाबचंद्र "निर्मोही" महाकाव्यः-महाकाव्य का शास्त्रीय लक्षण प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता । लक्ष्यके आधार पर लक्षण की कल्पना की जाती है-इस नीति के अनुसार बाल्मीकि रामायण तथा कालिदास के महाकाव्यों का विश्लेषण करने से आलोचकों ने महाकाव्य के शास्त्रीय रूप का अनुगमन किया तथा आलंकारिकों ने अपने अलंकार ग्रंथों में उसके लक्षण प्रस्तुत किए । आलंकारिकों में दण्डी सबसे अधिक प्राचीन माने जाते हैं। उनके अनुसार महाकाव्य की रचना सर्गों में की जाती है। उनमें एक ही नायक होता है। वीर, श्रृंगार या शांत-इनमें से कोई एक रस प्रधान होता है और अन्य रस गौण रूप में समाविष्ट होते हैं । कथावस्तु इतिहास प्रसिद्ध होती है अथवा किसी का चरित वर्णन किया जाता है। प्रत्येक सर्ग में एक ही प्रकार के वृत्त में रचना की जाती है पर सर्ग के अन्त में वृत्त बदल जाता है। सर्ग न तो बहुत बड़े होने चाहिए और न बहुत छोटे । सर्ग आठ से अधिक होने चाहिए और प्रत्येक सर्ग के अन्त में आगामी कथानक की सूचना होनी चाहिए । वृत्त को अलंकृत करने के लिए संध्या, सूर्योदय, चन्द्रोदय, रात्रि, अन्धकार, वन, ऋतु, समुद्र, पर्वत आदि प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन अवश्य किया जाता है । बीच-बीच में वीर रस के प्रसंग में युद्ध, मन्त्रणा आदि का भी यथेष्ठ वर्णन रहता है। महाकाव्य का मुख्य उद्देश्य धर्म तथा न्याय की विजय तथा अधर्म और अन्याय की पराजय होना चाहिए। संस्कृत भाषा में काव्य का प्रारम्भ बाल्मीकि से हुआ। रामायण को संस्कृत भाषा का आदि महाकाव्य माना जाता है । क्रमशः वह परम्परा विकसित होती गई और कालिदास, अश्वघोष, आर्यशूर, भारवि, कुमार दास, प्रवरसेन, माघ, हर्ष, बाण आदि मूर्धन्य काव्यकारों ने उसे गौरवान्वित किया। उनके काव्य ग्रन्थ संस्कृत साहित्य की श्रेष्ठ निधि माने जाते हैं। जैन मनीषियों ने भी संस्कृत भाषा में काव्य रचना के द्वारा अपनी प्रतिभा का पर्याप्त चमत्कार प्रस्तुत किया है । काव्य के लिए संस्कृत भाषा का प्रयोग करने वाले जैन विद्वानों में समन्तभद्र का नाम अग्रणी माना जाता है। उन्होंने अनेक स्तोत्र काव्यों की रचना की। यह क्रम विकसित होता हुआ क्रमशः सातवीं शताब्दी तक चरित काव्य और महाकाव्यों में वरांगचरित, चंद्रप्रभ चरित, वर्धमानचरित, पार्श्वनाथ चरित, पद्युम्नचरित, शान्तिनाथ चरित, धर्मशर्माभ्युदय, नेमीनिर्वाण काव्य, पद्मानन्द ५४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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