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________________ ५. मा बदनां ६. नंदन निकुंज ७. सोमरस ८. चंदन की चुटकी भली ६. शासन-संगीत । आप द्वारा निर्मित ग्रंथ केवल जीवनियां ही नहीं हैं अपितु इतिहास के साथ-साथ उनमें साहित्यिक शिल्प भी है । इस दृष्टि से कालूयशोविकास तो संभवतः आधुनिक राजस्थानी की एक शिरमोड कृति कही जा सकती है। किसी ने ठीक ही कहा है-अंधकार है तहां जहां आदित्य नहीं है। ___मुर्दा है वह देश जहां साहित्य नहीं है ॥ यह बात सम्प्रदायों के प्रति भी इसी तरह लागू होती है। जिस सम्प्रदाय का अपना पुष्ट साहित्य नहीं होता वह अपने आधार भूत सत्यों की सुरक्षा नहीं कर सकता। साहित्य युग-चेतना का प्रहरी तो होता ही है, पर वह संस्कृति और सभ्यता का सजग प्रहरी भी होता है । इस दृष्टि से तेरापंथ के संतों ने भी साहित्य की श्री वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है । उस कड़ी में सबसे पहले नाम है मुनिश्री वेणीरामजी तथा मुनिश्री हेमराजजी के । मुनिश्री हेमराजजी तो एक बहुत ही क्रांतद्रष्टा व्यक्ति थे । जयाचार्य को आचार्य भिक्षु के संस्मरणों को लिखने की प्रेरणा उन्हीं से मिली थी। उन्होंने स्वयं भी आचार्य भिक्षु का जीवन चरित लिखा है। मुनिश्री वेणीरामजी एक भक्त हृदय संत थे । आचार्य भिक्षु के साथ उनके तादाम्य ने उनसे उनका (आचार्य भिक्षु का) जीवन चरित्र लिखवाया है । यद्यपि यह चरित परिमाण में बहुत छोटा है, पर इसकी वर्णन शैली इतनी सजीव है कि वह एक अमूल्य कृति बन जाती है। ये दोनों ही संत आचार्य भिक्षु के युग में हुए थे। उनके बाद द्वितीय आचार्य श्री भारमलजी के शासन काल में मुनिश्री कर्मचंदजी, और मुनिश्री जीवोजी का नाम आता है । मुनिश्री कर्मचंदजी का 'ध्यान' तो उपलब्ध होता ही है जो ध्यान साहित्य में अपना महत्त्व रखता है पर उनकी विशिष्ट ढालों का एक संग्रह भी उपलब्ध है जिसकी पद्य संख्या ८५ है । __ मुनिश्री जीवोजी ने अनेकानेक आचार्यों तथा साधु-साध्वियों के गुणों की अनेक गीतिकाएं तो लिखी ही है पर उन्होंने शासन-विलास, भिक्षु दृष्टांतों की जोड़ के अतिरिक्त ग्यारह आगमों पर जोड़ें की हैं । इनके साहित्य का पद्य-परिमाण लगभग १० हजार पद्य होता है। तृतीय आचार्य रायचंदजी द्वारा दीक्षित मुनिश्री गुलहजारी जी तथा मुनिश्री कालूजी की अपनी एक साहित्यिक देन रही है । मुनिश्री गुलहजारीजी की कुछ गीतिकाएं आज भी उपलब्ध हैं। मुनिश्री कालजी एक कथाकार संत थे। उन्होंने अनेक कथाओं की न केवल रचना की पर उन्हें भाषा का भी परिधान दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने ही तेरापंथ ५२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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