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________________ को दूतों के माध्यम से कराने चाहिए और शत्रुओं के पीछे अपने प्रतिदूतों या गुप्तचरों को नियुक्त करना चाहिए । इसके अतिरिक्त प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रक्षकों को नियुक्ति कर उन पर दृष्टि रखनी चाहिए ।२२ दूत कार्य के सम्बन्ध में मनु ने एक स्थान पर कहा है कि दूत ही सन्धि, विग्रह का कारण होता है । दूत ही मेल कराता है और मिले हुए शत्रु से विग्रह कराता है। दूत वह कार्य करता है जिससे मिले हुए मनुष्य में भी फूट पड़ जाती है । दूतों के कार्य अत्यन्त जोखिम भरे होते थे। वे अपने स्वामी के कथनों को शत्रु राजा के समक्ष अक्षरशः कहते थे । संभव था कि उनकी बातों से शत्रु पक्ष को क्रोध आ जाए और राजा दूत का वध कर दे । अतएव ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए प्राचीन राजनीति-आचार्यों ने दूत की रक्षा के लिए कुछ विशेष नियम बनाए थे। इन नियमों का पालन प्रत्येक राजा का कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व माना जाता था। ____ 'नीतिवाक्यामृत' में लिखा है कि उठे हुए शस्त्रों के बीच (घोर युद्ध के बीच) भी राजा दूत मुख वाले होते हैं । अतः दूत के द्वारा महान् अपराध किए जाने पर भी राजा उसका वध न करें। दूतों में यदि चाण्डाल भी हो तो उनका भी वध नहीं करना चाहिए, उच्च वर्ण वाले ब्राह्मणों की तो बात ही क्या है ? दूत अवध्य होता है, अतः सभी प्रकार के वचन बोलता है । महाभारत में भी दूत को अवध्य बताया गया है । वहां इस बात का उल्लेख मिलता है कि "क्षात्र धर्म में रत जो राजा गण यथार्थ वक्ता दूस का वध करते हैं, उनके पितर-गण भ्रूण हत्या के भागी बनते हैं। राजा किसी भी आपत्ति में क्यों न हो उसे दूत का वध नहीं करना चाहिए, क्योंकि दूत का प्राण-वध करने बाला राजा मंत्रियों सहित नरकगामी होता है। सर्वांश में आज ही की तरह प्राचीन भारत में भी दूत-व्यवस्था उच्च कोटि कीथी। संदर्भ १. अभिधान राजेन्द्र (पृ० २६०५) में "दूत"-'अन्येषां ज्ञात्वा राजाऽऽदेश निवेदन के' (औ० रा० कल्प० ज्ञा० भ०) तथा जैनेन्द्र सिद्धांतकोश (भाग-२ पृ० ४३५) में "दूत" आहार का एक दोष (दे० आहार० २-२) बताया गया है । २. जिनसेन, हरिवंशपुराण, ११.६० १४. कौटिल्य-अर्थशास्त्र, १-१६ ३. वही, ११.७८ १५. आदिपुराण, ४३.२०२ ४. कौटिल्य-अर्थशास्त्र, १.१६.१३ १६. कौटिल्य-अर्थशास्त्र, १-१६-३ ५. आदि पुराण, ४५.७३ १७. आदि पुराण, ४३.२०२ ६, वही, ४४.८६ १८. पउमचरियं, ६६.४,५४, ६० ७. उत्तरपुराण, ५८, ६५ १०२ १६. पउमचरियं, ८.८८,१८७ ८. मनुस्मृति, ७.६३ २०. कौटिल्य-अर्थशास्त्र. १-१६-३३ ६. कामन्दक, १३.२-३ २१. पउमचरियं, १३.८ १०. पउमचरियं, ३६.८५,८६,६६.१३ २२. कौटिल्य अर्थशास्त्र, १-६-३५ ११. शुक्रनीति, २-८७ २३. मनुस्मृति, ७-६६ १२. आदिपुराण, ३४.८६,४४.१३६-१३७ २४. नीतिवाक्यामृतम्, १३.१०-२१ १३. नीतिवाक्यामृतम्, १३.४ ।। २५. महाभारत, शान्ति-पर्व, ८५-२६,२७ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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