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________________ अनुसार उसे शत्रुपक्ष से निवेदन करना होता था। इतना होते हुए भी दूत अवघ्य था। रावण के धृष्ट अभिप्राय को व्यक्त करने वाले दूत पर ज्योंही भामण्डल ने तलवार उठाई त्योंही लक्ष्मण ने उसे रोक लिया। यहां पर लक्ष्मण कहते हैं कि प्रतिध्वनियों पर, लकड़ी के बने पुरुषाकार पुतलों पर, सुआ आदि तियंचों पर, यंत्र से चलने वाली पुरुषाकार पुतलियों पर सत्पुषकों को क्रोध कैसा ?" ऐसे ही एक स्थल पर दूत के प्रति कहा गया है-जिसने अपना शरीर बेच दिया है और तोते के समान कही बात को ही दुहराता है, ऐसे पापी, दीनहीन भृत्य का क्या अपराध है ? दूत जो बोलते हैं, पिशाच की तरह अपने हृदय में विद्यमान अपने स्वामी की प्रेरणा से ही बोलते हैं। दूत यंत्र पुरुष के समान पराधीन है।" राजदूत के कार्यों का निर्धारण करते हुए आचार्य कौटिल्य निम्नलिखित ग्यारह प्रकार के कार्यों का उल्लेख करते हैं । २० प्रेषण-अपने राजा का संदेश शत्रु राजा के पास ले जाना तथा उसका उत्तर अपने राजा के पास भेजना। सन्धिपालत्व-पूर्वकाल में की गई सन्धियों का पालन करना। प्रताप-यथोचित अवसर आने पर अपने प्रताप का प्रदर्शन करना । मित्रसंग्रह-मित्रों का अधिकाधिक संग्रह करना । उपजात-शत्रु के कृत्य-पक्ष में फूट डालना। सुहृद् भेद-शत्रु के मित्रगणों में भेद डालना। गूढ़दण्डातिसारण-गुप्तचरों एवं सेना को प्रतिकूल करना। बन्धुरत्नापहरण-शत्रु राजा के बन्धुजनों तथा रत्नों का अपहरण करना । चरज्ञान-गुप्तचरों द्वारा प्राप्त समाचार को ग्रहण करना । पराक्रम-समय आने पर अपना पराक्रम दिखाना। समाधिमोक्ष-(योग का आश्रय) सन्धि करके बन्दी राजकुमार आदि को छुड़ाना तथा मारण-मोहन, उच्चाटन आदि का प्रयोग करना । पउमचरियं में भी दूत के कार्यों पर प्रकाश डाला गया है । इसके अनुसार दूत के निम्नलिखित कार्य हैं नैतिक उपाय द्वारा शत्र कार्य - सैनिक संगठन आदि को नष्ट करना । राजनैतिक उपाय के द्वारा शत्रु का अनर्थ करना-शत्रु विरोधी क्रुद्ध, लब्ध भयभीत और अभिमानी पुरुषों को सामदामादि द्वारा वश में करना। शत्रु के पुत्र, कुटुम्बी व बन्दी मनुष्यों में द्रव्यदानादि द्वारा भेद उत्पन्न करना। शत्रु द्वारा अपने देश में भेजे हुए गुप्तचरों का ज्ञान । सीमाधिप, आटविक, कोश, सैन्य, मित्र की परीक्षा । शत्रु राजा के यहां वर्तमान कन्यारत्न तथा हाथी, घोड़े आदि वाहनों को निकालने का प्रयत्न करना चाहिए। शत्रु प्रकृति (मंत्री, सेनाध्यक्ष) में गुप्तचरों द्वारा क्षोभ उत्पन्न करना। ये उपर्युक्त कार्य दूत के बताए गए हैं । कौटिल्य का मत है कि सभी कार्य राजा खण्ड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, ६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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