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________________ यह है कि जिस व्यक्ति में ये सभी गुण पाए जाते हैं वह दूत पद के लिए योग्य हैं तथा राजा को ऐसे व्यक्ति को दूत बनाना चाहिए। 'पउमचरियं' में दूत के गुणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है "इसे शास्त्रज्ञान में निपुण, राजकर्तव्य में कुशल, लोक व्यवहार का ज्ञाता, गुणों में स्नेहशील, संकेत के अनुसार अभिप्राय को जानने वाला तथा स्वामी के कार्य में अनुरक्त, बुद्धि वाला होना चाहिए । आचार्य शुक्र का मानना है कि दूत को इंगित आकार का ज्ञाता, स्मृतिवान्, देश-काल का ज्ञाता, षाड्गुण्य नीति का पंडित, वाग्मी और निर्भीक होना चाहिए। अगर दूत इन सब गुणों ने युक्त नहीं होगा तो वह अपने कर्तव्य का पालन ठीक से नहीं कर पाएगा। निर्भीक नहीं होने पर वह शत्रु राजा के समक्ष अपने स्वामी की कटु बातों को नहीं कह पाएगा। अगर वह संकेत के अभिप्राय को नहीं समझने वाला होगा तब उसे कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि कभी-कभी राजा भी संकेत के माध्यम से ही अपनी बातों का अभिप्राय भेज सकता है। प्राचीन आचार्यों ने योग्यता एवं क्रम की दृष्टि से निसृष्टार्थ, परिमितार्थ और शासनहर तीन प्रकार के दूत बताये हैं निसृष्टार्थ-स्वामी के कान के पास रहने वाला, रहस्य की रक्षा करने वाला सुयोजित पत्र लेकर जल्दी जानेवाला, मार्ग में सीधे जाने वाला, शत्रुओ के हृदय में प्रवेश कर कठिन से कठिन कार्य को सिद्ध करने वाला तथा विवेक बुद्धि वाला दूत निसृष्टार्थ कहलाता था। १२ आचार्य सोमदेव के अनुसार जिसके द्वारा निश्चित किए हुए सन्धि-विग्रह को उसका स्वामी प्रमाण मानता है, वह निसृष्टार्थ है । उदाहरण स्वरूप कृष्ण पांडवों के निसृष्टार्थ दूत थे । आचार्य कौटिल्य निसृष्टार्थ दूत को आमात्यों के समान ही मानते थे, क्योंकि वे स्पष्ट रूप से कहते थे कि जिन योग्यताओं को अमात्यपद के लिए निर्धारित किया गया है, उन्हीं योग्यताओं से युक्त दूत निसृष्टार्थ कहलाता है । ये दूत अपने स्वामी का संदेश विदेशी राजा तक ले जाते थे तथा प्रत्युत्तर में उस राजा का संदेश अपने राजा तक पहुंचाते थे। इसके अतिरिक्त इन्हें अपनी तरफ से भी बातचीत करने का अधिकार प्राप्त था । आधुनिक समय के राजदूत निसृष्टार्थ दूत के ही स्तर के माने जा सकते हैं। परिमितार्थ-परिमित समाचार सुनाने वाला'५ अथवा राजा द्वारा भेजे हुए संदेश और लेख को जैसे का तैसा शत्रु से कहने वाला दूत परिमितार्थ कहलाता है। आचार्य कौटिल्य इसे निसृष्टार्थ दूत से निम्न श्रेणी का मानते हैं । वे कहते हैं कि इस पद पर उसी व्यक्ति की नियुक्ति की जानी चाहिए जिसमें अमात्यपद के लिए निर्धारित योग्यता का तीन चौथाई भाग ही पाया जाता हो । शासनहर-उपहार के भीतर रखे हुए पत्र को ले जाने वाला दूत शासनहर कहलाता है । " उपर्युक्त दोनों दूतों से इसकी स्थिति निम्न मानी गई है । इसका कार्य केवल अपने स्वामी के संदेश को ले जाना तथा ले आना था। स्वयं किसी प्रकार की संधि अथवा समझौता करने का उसे कोई अधिकार नहीं था। दूत का कार्य अत्यन्त साहसका कार्य माना गया है। स्वामी के अभिप्राय के ३२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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