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________________ जैन एवं जैनेतर राजनीति में दूत [] डॉ० सुनीता कुमारी प्राचीनकाल में भी आधुनिक काल की ही भांति एक राजा के संदेश दूसरे राजा के पात के माध्यम से प्रेषित किए जाते थे । इन संदेशवाहकों को राजदूत, दूत बोहर, वचनहर आदि विभिन्न नामों से जाना जाता था । राजा के संदेशों का संप्रेषण दूत की योग्यता पर निर्भर करता था, क्योंकि राजा अच्छे और बुरे दोनों ही प्रकार के संदेश इनके माध्यम से भेजा करता था । राजदूतों के आचरण एवं व्यवहार को संबंधित राष्ट्र की मर्यादा का द्योतक माना जाता था । दूत ही परराष्ट्र में स्व-राष्ट्र का प्रतिनिधि माना जाता था । राजदूतों के आचरण के कारण कभी राष्ट्र को अत्यधिक सम्मान मिलता था तो कभी-कभी अपमान का कड़वा घूंट भी । दूत को राजाओं के बीच परस्पर सम्बन्ध स्थापित कराने का मुख्य साधन बताया गया है । आचार्य जिनसेन के अनुसार एक राजा दूसरे के पास संदेश भेजने के लिए साम दाम आदि नीतिपूर्वक दूत भेजता था । प्रत्युत्तर के रूप में भी एक राजा दूसरे राजा के पास दूत भेजा करता था । जैसे भरत के प्रति अपनी अनुकूलता प्रकट करने के लिए बाहुबलि ने "मैं आपके अधीन नहीं हूं" यह कहने के लिए दूत भेजे थे । कही गई है वह कौटिल्य के मंतव्य आचार्य कौटिल्य दूत को राजा का मुख मानते हैं। उनका कहना है कि अपने राज्य में राजा जिस प्रकार की व्यवस्था और नीति निर्धारित करता है, दूसरे राज्य में वही कार्य राजदूत का होता है । पर राष्ट्र संबंधी कार्यों में वह राजा का प्रतिनिधि होता है । 'आदिपुराण' में दूत के संबंध में जो बात को स्पष्ट करती है । उक्त ग्रन्थ में कहा गया है कि दूत जब दूसरी जगह जाता है तो वहां सदा अपने स्वामी के अभिप्राय के अनुसार चलता है तथा वह अपने स्वामी के गुण और दोषों पर विचार नहीं करता है ।" दूत प्रारम्भ में साम, दाम आदि के वचन ही कहता था, और विरोधी राजा को अशान्त जानकर लौट आता था व सब समाचार अपने स्वामी से कहता था। दूसरे राजा को अनुकूल करने के लिए चित्त का हरण करने वाले तथा दूसरे के साथ विग्रह करने के लिए कलहप्रिय तथा दुर्वचन बोलने वाले दूत भी भेजे जाते थे ।" दूत का पद अत्यंत महत्त्व का था । राजदूतों की योग्यता के संबंध में विभिन्न आचार्यों ने अपने-अपने मत व्यक्त किए हैं । 'मनुस्मृति' में कहा गया है "सभी शास्त्रों विद्वान्, इंगित, आकार एवं चेष्टा को जानने वाला, शुद्ध हृदय, चतुर तथा कुलीन व्यक्ति को दूत नियुक्त करना चाहिए ।' आचार्यं कामंदक के अनुसार दूत को प्रगल्भ, स्मृतिवान्, वाग्मी, शास्त्र और शस्त्र में निपुण तथा अभ्यस्तकर्मी होना चाहिए ।' तात्पर्यं खण्ड १८, अंक १ ( अप्रैल-जून, १२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only ३१ www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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