________________
जैन दर्शन-स्याद्वाद पद्धति
- राजवीर सिंह शेखावत
दार्शनिक समस्याओं या विषयों पर विचार करने या किसी दार्शनिक सिद्धांत का निर्माण करने या जगत् एवं जगत् की वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए विचार प्रणाली या तो परम्परागत दर्शन से प्राप्त हो जाती है या फिर कोई अपनी नयी विचार पद्धति को विकसित करता है । जैनों ने किसी परम्परागत विचार पद्धति को स्वीकार नहीं किया और न डेकार्ट जैसी किसी पद्धति को ही विकसित किया। ऐसा होते हुए भी उनके चिन्तन का तरीका अन्य विचार-पद्धतियों से भिन्न तथा विशिष्ट है जिसे उनके दर्शन या दार्शनिक सिद्धान्तों की व्याख्या से जाना जा सकता
जैन किसी पूर्व मान्यता या सामान्य नियम या किसी सर्वव्यापी तकं वाक्य को लेकर आगे नहीं बढ़ते हैं, अपितु आनुभविक जगत् से अपने चिन्तन को प्रारम्भ करते हैं। जैनों की मुख्य समस्या है, जगत् क्या है ? इसका वास्तविक स्वरूप क्या है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? इन जटिल समस्याओं को कैसे सुलझाया जा सकता है ? इन समस्याओं के समाधान के लिए जगत् की संश्लिष्ट वस्तुएं उनके सामने थीं । इन संश्लिष्ट वस्तुओं को समझने के लिए प्रयमतः उन्होंने अपनी दृष्टि वस्तुओं के धर्मों पर केन्द्रित की । वस्तुओं के धर्मों को जानने के लिए वे किसी वस्तु विशेष के धर्मों तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु धर्मों को जानने-समझने के लिए अन्य वस्तुओं के धर्मों से उनकी तुलना तथा सम्बन्ध को देखा तथा वस्तु विशेष के धर्मों को अन्य वस्तुओं के धर्मों के आलोक में समझा और प्रत्येक धर्म को उसके प्रतिपक्षी धर्म के साथ जाना। इस प्रक्रिया में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वस्तु में एक से अधिक धर्म ही नहीं, अपितु अनेक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ रहते हैं। तथा इस प्रकार के धर्मों से युक्त वस्तु एक ही नहीं, अपितु अनेक हैं तथा ज्ञान पर आश्रित भी नहीं हैं, ज्ञान से स्वतन्त्र है। इन अनेक प्रतिपक्षी धर्मों के आश्रय को किसी एक ही दृष्टि से नहीं जाना जा सकता है। क्योंकि एकान्तिक दृष्टि से देखने पर प्रतिपक्षी धर्मों में विरोध दिखाई देता है। ____ इस प्रकार जैन दार्शनिक अपनी विचार पद्धति या दर्शन-पद्धति के केन्द्र बिन्दु अनेकांत इष्टि पर पहुंचे। इस पद्धति के अनुसार किसी समस्या, विषय या वस्तु का निश्चयात्मक, वश्वसनीय तथा पूरी तरह से ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक है उसे अनेकान्त दृष्टि से देखें । अनेकान्त दृष्टि का तात्पर्य है, वस्तु या विषय के प्रत्येक धर्म को भिन्नभिन्न पक्षों या अपेक्षाओं से उसके प्रतिपक्षी धर्म के साथ देखें। वस्तु को अनेकान्त दृष्टि खंड-१८, अंक १ (अप्रैल-जून ६२)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org