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________________ ८. आवश्यक नियुक्ति गाथा-१०२० ६. इन्द्रियविसयकसाये परीसहे वेयणाओ उवसग्गो। ए ए अरिणो हंता अरिहंता तेण वुच्चंति ॥१६॥ अट्टविहं वि अ कम्मं अरिभू अं होइ सव्व जीवाणं । तं कम्ममरिहंता अरिहंता तेण बुच्चंति ।।२०॥ १०. 'नरक तिर्यक्कुमानुष्य प्रेतावासगताशेष दुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोहः । तथा च शेष कर्म व्यापारो वैफल्यमुपेयादिति चेन्न, शेष कर्मणां मोहतन्त्रत्वात् । न हि मोहमन्तरेण शेष कर्माणि स्वकार्य निष्पत्ती व्यापूतान्युपलम्यन्ते, येन तेषां स्वातन्त्र्यं जायेत । मोहे विनष्टेऽपि कियन्तमपि कालं शेष कर्मणां सत्त्वोपलम्भान्न तेषां तत्तन्त्रत्वमिति चेन्न, विनष्टेऽरौ जन्ममरण प्रवन्ध लक्षणसंसारोत्पादन सामर्थ्यमन्तरेणं तत्सत्त्वस्यासत्त्व समानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषात्मगुणाविर्भावप्रतिबन्धनप्रत्ययसमर्थत्वाच्च । तस्यारेहननादरिहन्ता।' -छक्खंडागमे, जीवट्ठाणं पृ० ४४ ११. तुलसीप्रज्ञा, लाडनूं अंक १७/२ में साध्वी डा० सुरेखाश्री का लेख पृष्ठ ८५ और ८६। १२. देवतराजा के पौत्र, पिजवनराजा के पुत्र, राजा सुदास और राजा नहुष ऐति हासिक पुरुष हैं । इनके साथ ऊसान अर्हत् का उल्लेख जैन-इतिहास के लिए अतीव महत्वपूर्ण है। इन संबंध में शोध किए जाने की आवश्यकता है। १३. अहं से शत् प्रत्यय होकर अहत् (वर्तमान में कर्ताकारक का एक वचन) बन सकता है । 'लशक्वद्विते' (१.३.८) से शत के शकार की इत् संज्ञा होकर तस्यलोपः (१.३.६) से श लोप और 'उपदेशेऽजनुनासिकइत्' (१.३.२) से ऋकार को इत् और ऋकार लोप होकर 'अज्झीणं परेण संयोज्यम्' न्याय से अहं+ अत् का "अर्हत्" रूप बनेगा। १४. शिलालेखों में, प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों की प्रतिलिपियों में से मंत्रराज के स्वरूप-विकास को संकलित किया जाना अपेक्षित है। १५. गोरक्ष पद्धति के अनुसार अपान और प्राण को मिलाकर मूलबंध का अभ्यास करने से मल-मूत्र क्षय होकर वृद्ध भी जवान हो जाता है। "अपान प्राणयोरेक्यात् क्षयो मूत्र पुरीषयोः । युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबंधनात् ॥ इस तथ्य का अन्वेषण उत्साहजनक परिणाम दे रहा है । मंत्रराज में 'नमो' का 'णमो' में बदलना और 'ओ३म्' ध्वनि के साथ उसे बारबार दोहराना 'गोरक्ष पद्धति' के उक्त अभ्यास को ही बढ़ावा देता प्रतीत होता है क्योंकि 'ओ३म्' के महाघोष से मूलाधार की वायु ऊपर प्राण वायु में मिलती है। णमो' से नाभि-मणिपुर और अनाहत चक्र एकाकार होते हैं और 'अरहंताणं' उच्चारण से सिद्धता बढ़ती है । इसी प्रकार पूरे “मंत्रराज" का अलौकिक प्रभाव होता प्रतीत होता है जो प्रयोगजन्य उपलब्धि ही कही जा सकती है । खण्ड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, ६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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