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________________ एसो आणाइ कालो अणाइ जीवो अणाइ जिणधम्मो।। तइया विते पढ़ता एसुच्चिय जिणणमुक्कारं ॥ जे केइ गया मोक्खं गच्छंति य केऽविकामफलमुक्का । ते सव्वे विय जाणसु जिण नवकारप्पभावेण ।। ४. देखें-आवश्यक नियुक्ति गाथा १०२६ और मूलाराधना की गाथा, और १/४३. ५. महानिशीथ सूत्र की ३० वी गाथा की टीका इस प्रकार है __'अन्यत्र तु सम्प्रति वर्तमानागमसूत्रमध्ये न कुत्राप्येवं नवपद अष्ट संपदादि प्रमाणो नमस्कार उक्तो दृश्यते, यतो भगवत्यादौ चैवं पंचपदान्युक्तानि-नमो अरहंताणं नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवझायाणं, नमो (लोए) सव्वसाहूणं, नमो बंभीए लिवीए इत्यादि । क्वचिन्नमो लोए सव्व साहूणं ति पाठ इति तदवृत्तिः । प्रत्याख्यान नियुक्तौ तु नमस्कार सहित प्रत्याख्यान पारण प्रस्तावे चूर्णाविदमुक्तं-नमो अरिहंताण भणित्वा पारयति । नवकार नियुक्ति चूर्णोत्वेवमुक्तं-तथाहि सो नमुक्कारो कमा छ पयाणि वा दसवा । तत्थ छ पयाणि नमो अरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-साहूणं ति । दशत्वेवं नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं इत्यादि । यत्पुनः नमस्कार नियुक्ती अशीति पद माना विशतिर्गाथा संति यथा-अरिहंत नमुक्कारो-इत्यादयः ता नवकार माहात्म्य प्रतिपादिका न पुनर्नवकार रूपा भवितुमर्हन्ति, बहुपदत्वात्तासां नवकारस्य तु नवपदात्मकत्वात् ।' ६. महानिशीथ सूत्र के पुनर्लेखन विषयक वृत्तांत, निशीथ सूत्र में ही लिखा है कि आचार्य हरिभद्र ने अपने बुद्धिबल से दीपक लगी त्रुटित प्रति से उसे पूरा किया था 'जत्यय पयंपयेणाणु लग्गं सुत्तालावगं न संपज्जइ, तत्थ तत्थ सुपहरेहिं कुलिहिय दोसो न दायन्युति । किंतु जो सो एयस्स अचित चितामणि कप्पभूयस्स महानिसीह सुयक्खंधस्स पुवायरिसोआसि महुराए सुपासनाह थूहे पन्नसेहि उववासेहि विहिएसि सासण देवीए मम अप्पिउ ति ताहि चेव खंडाखंडीस उद्देहियाइएहि हेऊहिवहवे पतंगा परिसडिया तहावि ऊच्चंत सुमहत्था इसयं इमं परं महानिसीह सु अक्खंधं कसिण पवयणस्स परमं सारभूयं परं तत्तं महत्थंति कलिऊण पवयणवच्छलतेणं तहाभव सत्तोव पार यं च काउं तहाय आयहिय टत्याएं आयरिय हरिभर्तण जं तत्थायरिसेदिट्टतं सव्वं समइए सोहिऊण लिहिअंति अन्येहि यि सिद्धसेण दिवायर-वुडुवाइ-जक्खसेण-देवगुप्त-जसवद्धण-खमाखमण सीस रविगुत्त-नेमिचन्द जिनदास गणि खमण-सच्च सिरियमुहेहि जुगप्प हाण सुपहरेहिं बहुमंन्नियमिणं ।' ७. अमोघवर्ष राजेन्द्र राज्य प्राज्यगुणोदया। निष्ठता प्रचयं यायादाकल्पांतमनल्पिका ॥८॥ एकोनषष्टि समधिक सप्त शताब्देषु शक नरेन्द्रस्य । समतीतेषु समाप्ता जय धवला प्राभूत व्याख्या ॥६॥ -जयधवला प्रशस्तिः तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524570
Book TitleTulsi Prajna 1992 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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