________________
काल परिहाणि दोसेणं ताओ णिज्जुत्तिभासचुन्नीओ बुच्छिन्नाओ । इओ य वच्चं तेण काणं समणं महद्विपत्ते पयासुमारी वइर सामी नाम दुवाल संगसुअहरे समुप्पन्ते । तेण य पंचमंगलमहासुखंधस्स उद्धारो मूलसूत्तस्समझे लिहिओ । मूलसूत्तं पुण सुनताए गणहरेहि अत्यत्ताए अरिहंतेहि भगवतेहि धम्मतित्थयरेहि तिलोग महिसाहिं वीर जिणिदेहि पन्नवियं तिएसबुड्ढसंपपाओ ।' अर्थात् महानिशीथ सूत्र में यह मंत्र महाश्रुतस्कन्ध कहा गया है । वृत्ति में कहते हैं कि अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के धारक तीर्थंकरों ने इस पंचमंगल महाश्रुतस्कंध का जैसा व्याख्यान किया था उसी के अनुसार संक्षेप में नियुक्ति भाष्य और चूर्णि के द्वारा बड़े प्रयत्न से उसका व्याख्यान निबद्ध किया गया था। किंतु काल के दोष से वे निर्युक्ति, चूर्णि और भाष्य नष्ट हो गए । तब समय बीतने पर द्वादशांग श्रतधारी महद्ध वज्रस्वामी मुनि हुए । उन्होंने पंचमंगल महाश्रु त स्कन्ध का उद्धार करके उसे मूल सूत्र के मध्य लिखा । मूलसूत्र के सूत्रकार तो गणधर देव हैं और अर्थ रूप से उसके कर्ता तीनों लोकों से पूजित भगवान् तीर्थंकर श्री वीर जिनेन्द्र देव हैं। ऐसा वृद्ध सम्प्रदाय है ।
आगे वृत्ति में यह भी लिखा है - 'इट्ठ देवयायं च नमुक्कारो पंचमंगलमेव गोयमा'-- कि हे गौतम । यह पंचमंगल ही देवता को नमस्कार रूप भी है । अभिधान राजेन्द्र ( पृ० १८३५) में इसे ही महानिशीथ के हवाले से दोहरा दिया गया है
"पंचपद नमस्कारश्च सर्वश्र तस्कन्धाभ्यन्तरभूतां नवपदश्च समूलत्वात् पृथक् श्रुतस्कन्ध इति प्रसिद्धमाम्नाये । अस्य हि नियुक्ति चूर्यादयः पृथगेव प्रभुता आसीरन्, कालेन तद्व्यवच्छेदे मूलसूत्रमध्ये तल्लेखनं कृतं पदानुसारिणा वज्रस्वामिनेति महानिशीथं माध्याने व्यस्थितम् ।"
भगवती सूत्र वृत्ति के आदि में 'णमो अरहंताणं' आदि पांच पद हैं और प्रत्याख्याननिर्युक्ति में भी ' णमो अरहंताणं' - आदि पांच पद बोलकर पारणा करने का विधान दिया है | नवकार नियुक्ति में भी यही निर्वचन है कि उस नमस्कार में क्रम से ६ पद अथवा दस पद होते हैं । ६ पद- ' णमो अरहंत, सिद्ध, आयरिय, उवज्झाय, साहूणं' और 'नमो अरहंताणं' 'नमो सिद्धाणं' इस प्रकार दस पद । नमस्कार-निर्युक्ति में ८० पद प्रमाण २० गाथाएं हैं किन्तु वे माहात्म्य रूप में हैं ।"
इस प्रकार परमेष्ठिपदों में 'पंच नमोकार' का इतिवृत्त महानिशीथ सूत्र के पुनर्लेखन और धवला टीका के निर्माण-काल से शुरू होता है और उससे अधिक प्राचीन नहीं है । महानिशीथ सूत्र आचार्य हरिभद्र द्वारा संस्कारित है जबकि धवला टीका का लेखन राष्ट्रकूट-नरेश अमोघवर्ष ( प्रथम ) के शासनारम्भ शक संवत् ७३७ से पूर्व समाप्त हो चुका था । क्योंकि राजा अमोघवर्ष के शासनकाल में शक सं० ७५६ को जय धवला टीका भी लिख दी गई - ऐसा स्वयं जिनसेन ने लिखा है ।
फिर भी यह कहना कठिन है कि आचार्य पुष्पदन्त से पहले पंच परमेष्ठि नमस्कार मन्त्र का प्रचलन रहा या नहीं रहा ? इस प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर देना कठिन है । शय्यंभव सूरि का निर्देश – ' णमोक्कारेण पारेता' ( दसवेआलियं ५.१.९३ ) और उत्तराध्ययन (दशवां अध्ययन ) का उल्लेख - ' सिद्धाणं नमो किच्वा संजयाणं च भावओ'
खण्ड १८, अंक १ ( अप्रैल-जून, ε२ )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
७
www.jainelibrary.org