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________________ आदिकर्तृन अर्हत् पञ्चेन्द्र ] डॉ. परमेश्वर सोलङ्की सन् १९७५ में एक जापानी टीम ने स्कन्दर (काबुल) से खोदाई में उमा-महेश्वर की खण्डित मूत्ति प्राप्त की। मूत्ति पर लिखे लेख में अग्नि के तीन रूप-अग्नि, विद्युत् और सूर्य की तरह ब्रह्मा, विष्णु और महेश को एक ही देव के तीन रूप बताया गया है। यह उल्लेख कठोपनिषद् के वाक्य-"अग्नियंत एको भुवनं प्रविष्ठो रूप-रूपं प्रतिरूपो बभूव"-की मान्यता के अनुरूप है। दूसरे शब्दों में विक्रमपूर्व की सदियों में ब्रह्मा, विष्णु, महेश-त्रिदेव को संस्थापक, प्रतिपालक और संहारक के रूप में न मानकर एक ही शक्ति को तीन रूपों में स्थित मानने की परम्परा प्रचलित थी। मथुरा के कंकाली टीले की खोदाई में एक चतुस्स्तंभ मिला है। उस पर भी तीन जिन मूत्तियां बनी हैं । यह चतुस्स्तंभ श्रेष्ठि वेणी की पत्नी और भट्टिसेन की माता कुमारमिता द्वारा प्रदत्त और आचार्य जयभूति शिष्या संघमिका शिष्या वसुला के कल्याणार्थ प्रतिष्ठापित हुआ है और उस पर सं० १५ का अंकन है। वहीं से प्राप्त एक पेनल के ऊपरी भाग पर स्तूप बना है और उसके दोनों बाजू दो-दो जिन प्रतिमाएं बनीं हैं । पेनल पर नीचे श्रमण काह्न और धनहस्तिन पत्नी तथा तीन सेवकों का अंकन है । पेनल पर सं० ६५ लिखा है। इसी टीले पर एक पश्चात्कालीन वर्धमान प्रतिमा भी मिली है जिसके बोर्डर पर सीधे ७ और दाएं बाएं ८, ८-कुल २३ जिनफलक बने हैं। कंकाली टीला, मथुरा से एक टूटा हुआ फलक और मिला है जिस पर सं० ७६ वर्षा ऋतु के चतुर्थ मास की २० वीं तिथि अंकित है और उसे 'पूर्वा' बताकर लिखा है कि कोट्टिय गण की भइरा शाखा के किसी अपवृधहस्ति द्वारा अरहतनंदीव्रत की प्रतिमा का निवर्तन हुमा और उसे किसी श्राविका के कल्याणार्थ देवनिर्मित जैन स्तूप में प्रतिष्ठित किया गया। यह फलक और उस पर लिखा लेख भी महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि १३ वीं सदी में हुए जिनप्रभसूरि ने अपने 'तीर्थकल्प' में उक्त स्तूप को देव-निर्मित कहने के अलावा स्वर्णमंडित बताया है और लिखा है कि धर्मरुचि और धर्मघोष के कहने पर ईंटों से बने देवनिर्मित स्तूप के बाहर स्वर्णिम पत्थरों का मंदिर निर्मित हुआ था। परम्परानुसार निर्माण बाद, १३०० वर्ष में बप्पभट्टिसूरि के समय भी उसका जीर्णोद्धार हुआ। स्तूप का तल गोलाकार है । नीचे केवल गोल चबूतरा है, जिस पर ढोल या कुंए खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१) १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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