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कल्पना साकार हुई जिसमें १२ अंग और १२ ही उपांग मान लिए गए । विशेषावश्यकभाष्य में एक गाथा इस प्रकार है - " गणहर थेरकयं वा, आएसा मुक्कवागरणओ वा । धुव चल विसेसओ वा, अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥” कि जो गणधर कृत है अथवा गणधरों के प्रश्नों के उत्तर में भगवान् तीर्थंकर ने कहा है वही ध्रुव है और अंगप्रविष्ट है । 'आचारांग सूत्र' के आरंभ में भी एक पद आता है - "सुयं मे आउ ! तेण भगवया एवमक्खायं " - हे शिष्य ! मैंने सुना है कि उस श्रमण भगवान् महावीर ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है । यह उल्लेख प्रविष्ट और अनंग प्रविष्ट-भेद होने का है । उसके बाद आगमों में ये भेद हुए । कालिक, उत्कालिक तथा अंग, उपांग, मूल, छेद, चूलिका, प्रकीर्णक आदि विभाजन हुए और आज आगमों की संख्या ८४ तक गिनी जा सकती है ।
जहां तक आगम-लेखन काल का प्रश्न है, तुलसी- प्रज्ञा के अप्रैल-जून अंक में 'निर्वाणकाल वर्ष संख्या' - शीर्षक एक अति प्राचीन पत्रक प्रकाशित किया गया है । उसमें "वीरात् ६५० कल्प सिद्धान्त पुस्तके न्यस्तः "... "यह उल्लेख २१ बार दोहराया गया है; अतः उसे सर्वमान्य किया जाना चाहिए | कल्प सिद्धान्त लेखन के साथ उस समय जैनागमों की क्या गणना रही होगी ? यह शोध का विषय है ।
- परमेश्वर सोलंकी
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