SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष । वहां वेद-पुरुष की भी कल्पना है। उसकी नासिका-शिक्षा, कल्प-हाथ, व्याकरण-मुख, निरुक्तश्रोत्र, छन्द-पैर और ज्योतिष-नेत्र हैं। जैन-वाङ्मय के ग्रंथ-मूलाराधना (विजयोदया) में श्रुत-पुरुष का जिक्र है-"श्रतं पुरुषः मुख चरणाद्यङ्गस्थानीयत्वादंग शब्देनोच्यते।" नंदी में भी आगम-पुरुष या श्रुत पुरुष का उल्लेख है। ___ नि:संदेह उस काल में आगम श्रुत-सन्निधि के रूप में ही वर्तमान रहे होंगे; इसलिये विचारणीय यह भी है कि मौर्य काल में क्या उच्छिन्न हुआ ? और राजा खारवेल ने कैसा, क्या 'सातिक तिरिय' बनवाया? इस संबंध में भी संभावना यही की जा सकती है कि श्रुत-सन्निधि को सुरक्षित रखने हेतु उस समय चैत्य-स्तूप आदि में जो वाचना-प्रवाचना की श्रुत-प्रतिश्रुत परंपराएं प्रचलित थीं वे मौर्य काल में हुए आक्रमण-प्रत्याक्रमणों में नष्टभ्रष्ट हो गईं अथवा कर दी गईं। केवल सुदूर पार्वतीय क्षेत्र में एक मात्र भद्रबाहु आचार्य के यहां ही वाचना-प्रवाचना का क्रम शेष रहा जिससे मुनि स्थूलभद्र लाभान्वित हुए और उनकी मृत्यु (वीर नि० सं० २१६) से आगम उच्छिन्न हुए। दिगम्बर-परंपरा के अनुसार यह उच्छेद-काल ६२+१००+१८३=३४५ वीर निर्वाण संवत् हो सकता है जबकि मुनि धर्मसेन दिवंगत हुए। अनुयोगद्वार सूत्र के द्रव्यावश्यक प्रसंग में आगम पाठ की १६ विशेषताएं बताई गई हैं-शिक्षित, स्थित, जित, मित, परिजित, नामसम, घोषसम, अहीनाक्षर, अन्त्यक्षर, अव्याविद्धाक्षर, अस्खलित, अमिलित, अव्यत्यानंडित, प्रतिपूर्ण, प्रतिपूर्णघोष और कण्ठोष्ठविप्रमुक्त । विशेषावश्यक भाष्य में आगम-लेखन पर रूपक दिया है-'तप, नियम तथा ज्ञानरूपी वृक्ष पर आरूढ़ अमित-अनन्त सम्पन्न केवलज्ञानी, भव्य जनों को उद्बोधित करने के लिए ज्ञान पुष्पों की वृष्टि करते हैं और गणधर उसे बुद्धिरूपी पट में ग्रहण करके उसका प्रवचन के निमित्त ग्रन्थन कर लेते हैं।" उपरोक्त दोनों उद्धरण आरंभिक अवस्था का दिग्दर्शन देते हैं। पूर्वात्मकज्ञान के रूप में जो १४ पूर्व थे वे उच्छिन्न हो गए। चतुर्दश पूर्वो में प्रथम चार पूर्वो की चूलिकाएं (परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत और अनुयोग) भी थीं, जो विलुप्त हो गई। राजा खारवेल ने कुमारी पर्वत पर महासंघ आहूत किया। वहां धर्मचक्र प्रवर्तन हुआ। ४ महत्त्वपूर्ण अंगों के रूप में आचार, सूत्र, स्थान और समवाय तथा आठ उपांगों के रूप में भगवती, ज्ञातधर्मकथा, उपासकदशा अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद की गणना की गई । संभवतः यह पहली वाचना है। दूसरी वाचना में, नंदी में उल्लिखित आगम-पुरुष अथवा श्रुतपुरुष की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy