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________________ की नाळ के समान इमारत बनी है और उसपर अर्द्धगोलाकार प्रदक्षिणापथ, आडी पटरियां और चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार बने हैं। दीवालों के भीतर मिट्टी भरी है और उसकी बाहर की ओर मूर्तियां जड़ी थीं। हमारी पहचान अनुसार उपर्युक्त चतुरस्तंभ, पेनल और फलक पर लिखा संवत्सर ( देवपुत्र शक संवत्सर) विक्रमपूर्व ५४३ वें वर्ष शुरू किया गया, जिससे ये तीनों उल्लेख विक्रमपूर्व के हैं । कहायूं (कहोम) जिला गोरखपुर (उत्तरप्रदेश) से प्राप्त एक शैल स्तंभ लेख' शक्रोपमस्य क्षितिपतपतेः स्कन्दगुप्तस्य शान्ते ( ? ) वर्षे त्रिंशदर्शकोत्तरकशततमे ज्येष्ठमासि प्रपन्ने' – के अनुसार गुप्तसंवत् १४९ का है । उस शैल स्तंभ पर“अर्हतानादिकर्तृन् पञ्चेन्द्रान् स्थापयित्वा धरणिधरमयान् सन्निखातास्ततोऽयम् शैलस्तंभ : " - अर्हत्, आदि कतृ और पंचेन्द्र कहे जाने वाले धरणिधरों की स्थापना की गई थी । इस प्रकार बप्पभट्टिसूरि के समय जीर्णोद्धार हुआ देवनिर्मित स्तूप उनसे १३०० वर्ष पूर्व अर्थात् ५०० वर्ष विक्रमपूर्व पुनः निर्माण हुआ था जो अतिप्राचीन होने से उस समय देवनिर्मित कहा जाने लगा था । उस स्तूप में स्थापित चतुरस्तंभ, पूर्व्वा फलक और पेनल क्रमश: सं० १५ = ५२८ विक्रमपूर्व, सं० ७६ = ४६४ विक्रमपूर्व और सं० ६५ = ४४८विक्रमपूर्व के हैं और वे क्रमश त्रिदेव ( तीन जिन) और चार जिन ( आदि कतन् रूप में पूजित होते थे । इस स्तूप में चरण चिह्न, आयागपट्ट, ध्वज और स्तंभ आदि भी स्थापित होते थे । किन्तु संभवतः पूजनीय पूर्व्वा अथवा पेनल ही होते थे । गुप्तकाल में कहायूं शैलस्तंभ की भांति पांच जिनों के रूप में पञ्चेन्द्रों की स्थापना होने लगी और कंकाली टीले से मिली गुप्तोत्तरकालीन वर्द्धमानमूर्ति पर बने २३ जिनों की भांति २४ तीर्थंकरों की परिकल्पना भी साकार हो गई। यह चौथी पांचवीं सदी में हुआ होगा ! प्राचीन जैन परम्परा में १४ कुलकर हैं । प्रतिश्रुति, सम्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभि । नाभिपुत्र ऋषभ पहले तीर्थंकर हैं, जो महेश्वर की तरह पूजनीय हैं। जैसे महेश्वर को अग्नि, विद्युत् और सूर्य के रूप में तीन रूपों वाला मान लिया गया, उसी प्रकार ऋषभ भी रूद्र के रूप में पार्श्व और महावीर के रूपों के साथ त्रिदेव बन गए । पुनः उनके शांति-रूप की कल्पना की गई और चार आदिकर्तन् बने । गुप्तकाल में ये आदिकर्तृन् पंचेन्द्र बन गए । महावीर, पार्श्व, ऋषभ... तीन परमेष्ठी देवों की ऐतिहासिकता संदेहों से परे हो चुकी है, किन्तु पंचेन्द्रों में दो अन्य तीर्थंकरों (शांतिनाथ और नेमिनाथ ? ) के इतिवृत्त को उद्घाटित किया जाना है। इस संबंध में इतिवृतात्मक विवरण आगम-ग्रन्थों और प्राचीन जैन पुराण कथाओं में अनुसंधेय हैं ? १०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only 00 तुलसी प्रशा www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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