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________________ और भाव इनमें से किसी पदार्थ के वाच्यवाचकभाव का ज्ञान जिस शब्द से हुआ हो उसके ज्ञान होने को साम्प्रतनय कहते हैं।' शब्द नय के विषय में पूज्यपाद आदि अन्य आचायों के कथनों के सार रूप में यह कहा जा सकता है कि घट, पट आदि शब्दों के उच्चारण करते ही उन पदाथों के जानकार पुरुष को जिसके द्वारा अपने वाच्यपदार्थ का ग्रहण हो वह शब्द नय है और यह नय लिङ्ग, वचन, साधनादि के दोषों से रहित होता है। सिद्धसेन गणी ने अपनी टीका में नामादि में आदि शब्द के लिये जो स्थापना द्रव्य और भाव अर्थ लिये हैं उसकी अपेक्षा नामादि के लिङ्ग, संख्या, साधनादि अर्थ अधिक उचित प्रतीत होते हैं क्योंकि यहां शब्द की प्रधानता है अतः शब्द शुद्धि पर बल दिया जाता है। शब्द नय में सत् एवं असत् भाव की विशेषता के अन्तर्गत लिङ्गादिव्यभिचार रहित शब्द की विद्यमानता अपेक्षित है तथा अन्य अर्थों की असत्ता है। (६) समभिरुढ़नय तत्त्वार्थभाष्य में लिखित परिभाषा के अनुसार "सत्स्वर्थेष्वसंक्रमः समभिरुढ़: अर्थात् वर्तमान अर्थों में शब्द का असंक्रम जिसके द्वारा ग्रहण किया जाय उसे समभिरुढ़ कहते हैं। पर्यायवाची अनेक अर्थों के विद्यमान होने से उन अनेक अर्थो को छोड़कर एक ही अर्थ में रूढ़ हो जाने से यह नय समभिरुढ़नय कहलाता है। सत् व असत् भाव की विशेषता-शब्दनय अथवा साम्प्रतनय में तो लिङ गादिदोषरहित शब्द का होना आवश्यक है किन्तु समभिरुढ़नय में लिङ गादिदोषरहित एकार्थवाची शब्दों में से भी एक रुढ़ हुये शब्द को ग्रहण किया जाता है। यही उसके सत्स्वरूप की विशेषता है। (७) एवंभूतनय विद्यानन्दि के अनुसार एवंभूतनय के द्वारा जिस समय, जिस क्रिया रूप परिणाम होता है, उस समय उसी विशेष प्रकार से उसका निश्चय किया जाता है और यह नय अन्य क्रियाओं से परिणत हुये उस अर्थ को जानने हेतु अभिमुख नहीं होता । जैसे---जिस समय अध्यापन कार्य चल रहा है उसी समय अध्यापक कहा जाएगा, भोजनादि करते समय अध्यापक नहीं है। यही भाव अकलंक ने तत्त्वार्थ राजवातिकालंकार में कहा है कि जो पदार्थ जिस १. "नामादिषु प्रसिद्धपूर्वाच्छब्दार्थे प्रत्ययः साम्प्रतः।" तत्वार्थभाष्य I. ३५ २. "नामेत्यादि । नामस्थापनाद्रव्यभावेष नम्यमाने वस्तुनि घटादौ स्थाप्यमाने वाऽऽकारात्मना द्रव्ये च गुणसंद्रावात्के भावे च प्रतिविशिष्टपर्यायरूपे-"भाष्य टीका I. ३५। ३. तरिक्रयापरिणामोऽर्थस्तथैवेति विनिश्चयात् । एवंभूतेन नीयेत क्रियोतरपराङ मुखः ॥ तत्वार्थश्लोकवा. I. ३३ टीकाश्लोक ७८. खण्ड १७, अंक २ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१) १४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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