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________________ नय है । संग्रहनय द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहारनय है ।" संग्रहनय का विषय सत् है, किंतु सत् शब्द से संसार का व्यवहार हो नहीं सकता । अतः जो सत् है वह द्रव्य और गुण है और यह व्यवहार नय से मानना पड़ता है तथा ऐसे ही संग्रह नय से ग्रहण किये गये द्रव्य के विषय में उसके जीवद्रव्यादि भेद करके व्यवहार किया जाता है । रहा होने से ये तीनों आरोप पर आश्रित इस प्रकार व्यवहार या उपचार से भेदपूर्वक ग्रहण किये जाने वाले पदार्थ का व्यवहारनय में सद्भाव है, इसके अतिरिक्त शेष सभी असत् है । उपर्युक्त तीनों नयों का उद्गम द्रव्यार्थिक की भूमिका में द्रव्यार्थिक नय कहे जाते हैं । इनमें नैगमनय का विषय लोकरूढ़ि होने से सर्वाधिक विशाल है । सामान्यलक्षी होने से संग्रह नय का अपेक्षाकृत न्यून है; तथा व्यवहारय का विषय संग्रहनय से भी संग्रहन द्वारा संकलित विषय की ही प्रमुख प्रमुख विशेषताओं के आधार पर पृथक्करण करने वाला होने से केवल विशेषग्राही है । उक्तरीत्या इनमें परस्पर पौर्वापर्य सम्बन्ध के साथ-साथ उत्तरोतर क्रम से नयदृष्टि की सूक्ष्मता पाई जाती है । इन तीन नयों के अतिरिक्त शेष चारों नय पर्यायार्थिक नय हैं, क्योंकि ये द्रव्य के स्थान पर उसकी पर्यायों को विषय करने वाले हैं । द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक भेद के समान ही उपर्युक्त तीनों नय व्यवहारनय माने जाते हैं तथा शेष निश्चय-नय कहे जाते हैं । (४) ऋजुसूत्र “सतांसाम्प्रतानामर्थानामभिधानपरिज्ञानमृजुसूत्र: । ' तत्त्वार्थ भाष्य की इस परिभाषा के अनुसार वर्तमान अर्थपर्याय ही ऋजुसूत्रनय का विषय है अतः ऋजुसूत्रनय वर्तमानकालिक सत् पदाथों की पर्यायों को ही ग्रहण करता है; अतीत - अनागत समय की पर्याय को ग्रहण नहीं करता है । विषय नैगमनय से कम है क्योंकि दह पूज्यपाद, अकलंक एवं विद्यानंदि आदि आचार्यों ने भी अपने-अपने ग्रन्थों में ऋजुसूत्र को उक्त अभिप्राय से ही समझाया है । सत् एवं असत् की विशेषता की दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि ऋजुसूत्रनय में द्रव्य की वर्तमान पर्याय का सद्भाव है और भूत-भविष्य पर्याय का असद्भाव है । ऋजुसूत्र पर्यन्त चारों नय अर्थनय, तथा शेष तीन नय शब्दनय कहे जाते हैं । (५) शब्दनय शब्दनय को श्वेताम्बर - परम्परा में साम्प्रतशब्द कहा है क्योंकि वे शब्द नय के तीन भेदों में प्रथम नय को साम्प्रतनय कहते हैं । तत्त्वार्थभाष्यानुसार नाम, स्थापना, द्रव्य १. "यथा लौकिका विशेष रेव घटादिभिर्व्यवहरन्ति तथा इयमपीत्यतस्तत्समः उपचार बहुल- " सिद्धसेन भाष्य टीका . ३५ २. "अतो विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः ।" तत्वार्थराजवा० I ३३ वार्तिक ६ १४० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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