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________________ दिगम्बर दोनों मान्यताओं में असमानता नहीं है क्योंकि यहां जनपद देश में कहे जाने वाले शब्दों का अर्थ या संकल्प मात्र से पद्धार्थ का ग्रहण करना नैगमनय का स्वरूप कहा गया है । इस प्रकार यहां वाचक शब्दों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला शब्दार्थज्ञान तो सत् है किन्तु वाच्य पदार्थ असत् है । (२) संग्रह नय-स्वोपज्ञभाष्यानुसार- "अर्थानां सर्वेकदेश संग्रहणं संग्रहः ।" अर्थात् पदार्थों के सर्वदेश (सामान्य) और एक देश (विशेष) का सम्यक् रूपेण ग्रहण करना संग्रह नय कहलाता है। सिद्धसेन गणी ने टीका में सामान्य और विशेषात्मक पदार्थों का एकीभाव से ग्रहण होने को संग्रह नय कहा है । संग्रह नय एकी भाव में सामान्य विशेप में से सतास्वभाववाले सामान्य की ही स्थापना करता है, क्योंकि विशेष, सत्ता से व्यतिरिक्त नहीं है।' विद्यानंदि के अनुसार “एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं संग्रह नयः । स्वजातेरविरोधेन दृष्टेष्टाभ्यां कथंचन ।" अर्थात् सता स्वरूप जाति के दृष्ट इष्ट प्रमाणों द्वारा अविरोध पूर्वक सभी विशेषों का कथंचित् एकत्व करके ग्रहण करना संग्रह नय है। पूज्यपाद ने भी संग्रह नय की उक्तभावानुसार व्याख्या की है। अपनी जाति में अविरोधपूर्वक एकत्व स्थापित करके अथवा अपनी जाति को प्रकट करके पर्यायों का भेद न करके समस्त पदार्थों को समुदाय रूप से या सामान्य रूप से ग्रहण करने वाला संग्रहनय है। यही भाव अकलंक के राजवार्तिक में है "स्वजात्यविरोधेनेकत्वोपनयात्समस्तग्रहणं संग्रहः।" सत् एवं असत् की विशेषता की दृष्टि से उपर्युक्त सभी मान्यताओं में विरोध नहीं है और इस विवेचन से स्पष्ट है कि संग्रह नय में एक जाति वाले पदार्थों के भेदों को सामान्यरूप से ग्रहण किया जाता है । अतः पदार्थ की सत्ता यहां सत् है और भिन्नभिन्न (पर्यायों की अपेक्षा से) रूप से पदार्थ असत् है। नैगमनय से संग्रहनय की विशेषता इस बात को लेकर है कि नैगमनय में पदार्थ असत् रहता है, वह केवल कल्पना से सत् माना जाता है जबकि संग्रहनय में सत्ता पदार्थों का विद्यमान भाव है। (३) व्यवहार नयः ___ व्यवहारनय की परिभाषा स्वोपज्ञ भाष्यानुसार-“लौकिक-सम उपचारप्रायो विस्तृतार्थों व्यवहारः" की गई है अर्थात् लौकिकव्यवहार के समान उपचार में प्रवृत हुए विशेष अंश को लेकर व्यवहार करने वाला नय व्यवहारनय है। __ भावार्थ यह है कि जिस प्रकार विशेषों के द्वारा घटादि व्यवहार करते हैं, उसी प्रकार सिद्ध अर्थ का अन्यत्र अध्यारोप करना जैसे "पुरुष के चलने पर, मार्ग चलते हैं" ऐसा कहना आदि उपचार बहुल से जानने योग्य अनेक अर्थों का निश्चय करना व्यवहार १. सिद्धसेन भाष्य टीका I. ३५ २. "स्वजात्यविरोधेनैक्यमुपनीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणात्संग्रहः ---सर्वार्थसिद्धि I. ३३ खण्ड १७, अंक ३ (अक्टूबर-दिसम्बर, ६१) १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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