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________________ स्वरूप अर्थात् अर्थ-क्रिया से जिस समय परिणित हो, उसका उसी स्वरूप अर्थ-क्रियापरिणाम से निश्चय करना एवंभूतनय का विषय हैं।' पूज्यपाद ने भी एवंभूत की यही परिभाषा की है। एवंभूतनय में सत् और असत् की विशेषता को समझने हेतु इस नय का जो स्वरूप बतलाया गया है वह यह है कि शब्द और अर्थ अर्थात् पद व पदार्थ परस्पर एक अपेक्षा लिये हुये होने चाहिये । इसी प्रकार अर्थ और व्यन्जन भी परस्पर एक दूसरे के बोधक होने चाहिये। __ व्यक्त पदार्थों का ग्रहण अर्थावग्रह कहलाता है और अव्यक्त या अप्रकट पदार्थों का ग्रहण व्यन्जनावग्रह कहलाता है। अर्थावग्रह की भांति व्यन्जनावग्रह के ईहा, अवाय, धारणादि नहीं होते किन्तु ये मान लिया जाय कि व्यन्जनपर्याय का अर्थपर्याय के साथ योग में संक्रमण भी रहता है, जैसा कि-उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी में पृथक्त्व को समझे जाने वाले विचार की परिभाषा करते हुये उमास्वाति ने कहा है-"विचारो अर्थ व्यन्जनसङक्रान्तिः तब भी सत् असत् की विशेषता को समझने हेतु जब तक ये निर्णय न हो जाय कि किस विवक्षा में कौन सी अर्थ पर्याय का सद्भाव और किस विवक्षा में कौन-सी अर्थपर्याय का असद्भाव तथा कौन-सी अर्थ पर्याय का सद् और असद्भाव दोनों हैं ? ; इसी प्रकार उस व्यन्जन की अव्यक्त ग्राह्य पर्याय के सम्बन्ध में भी प्रश्न उठते हैं कि वह व्यन्जन वास्तव में है, नहीं है अथवा है भी और नहीं भी है ?, तब तक इस नय के द्वारा सत् असत् की विशेषता को नहीं जाना जा सकता। इस प्रकार सभी वाचक शब्दों और वाच्य पदार्थों के व्यन्जन और अर्थ के सम्बन्ध में यह बतलाना कठिन है कि किस विवक्षा में कौन-सा पदार्थ कहां है ? या नहीं है ? इसीलिये प्रस्तुत कठिनाई के समाधानार्थ जैन-दर्शन में सप्तभङ्गी सिद्धान्त का निरुपण किया है ताकि सप्तभङ गी रूप मापदण्ड के अनुसार वे तत्-तत् विवक्षा को जानकर स्वयं उसका निर्णय करें। इस सम्बन्ध में सप्तभङगी के सात भङग हैं, जिनमें से प्रथम तीन अर्थ के विषय में तथा शेष चार अव्यक्त व्यन्जनार्थ हैं। कुन्दकुन्दाचार्य ने सप्तभङ गी का कथन पञ्चास्तिकाय में किया है "सिय अत्थि णस्थि उहयं अव्यत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दन्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ॥ पञ्चा० १४ (१) स्यादस्ति--अर्थात् कथञ्चित् (किसी अपेक्षा से) अर्थ है ही। स्यादस्ति के अनुसार जिस अपेक्षा से अर्थ है उसका ज्ञान कर उस अर्थ का निर्णय किया जाना चाहिये। (२) स्यान्नास्ति- अर्थात् कथञ्चित् अर्थ नहीं ही है। यहां पर जिस अपेक्षा से अर्थ नहीं है उसका ज्ञान कर उस अर्थ का निर्णय किया जाना चाहिये। १. "येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययतीत्येवंभूतः -तत्वार्थराजवा० I. ३३ वातिक ११ २. सर्वार्थसिद्धि 1. ३३ ३. तत्वार्थसूत्र IX. ४६ १४२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524568
Book TitleTulsi Prajna 1991 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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